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________________ रही है कि नीचे उतरने का रास्ता कहाँ है और कैसा है। उत्त बीहड़ विभीषिका में कहीं कोई रास्ते का चिह नहीं है। अंजना तो बस इतना भर ज्ञानतो है कि उन नीचे की गुफ़ाओं में होगा उनका आवास, और वहाँ पहुँचना उनका अनिवार्य है। भय से थरथराती वसन्त को सीने से चिपकाये, उस कगार के ठीक किनारे से एक बहुत ही संकीर्ण और खतरनाक राह पर वह चल पड़ी। कुछ दूर चलकर झाड़ियों में घुस उसने चट्टानों का एक रास्ता पकड़ा। और एकाएक वृक्षों की पोथियों में से उसे दीखा-जैसे किसी ने खाई के तल तक बा हा सुगम, प्रकृत सीढ़िासी बना दी हैं, जिन पर ऊपर से झर-झरकर नाग और तिलक वृक्षों की मंजरियों बिछ गयी हैं और लवंग-लताओं-मी कुसुम-केसर फैली है। चकित होकर अंजना ने वसन्त से कहा "देखो न जीजी, हमारे पथ में फूलों की सीढ़ियों बिछ गयी हैं!" चौंककर वसन्त ने देखा तो पलक मारते में पाया, जैसे स्वर्ग के पटल सामने फैले हैं। सुख और आश्चर्य से भरकर वह पुलक उठी, जैसे एक नये ही लोक में जन्म पा गया है। गलबाहीं डालकर दोनों बहनें बड़े सुख से नीचे उतर आयीं। निर्झर के फेनच्डाय ऋण्ड में से गुरु-गम्भीर नाद करती हुई पार्वत्य सरिता उफन रही है। तटवर्ती कानन की गुम्फित निबिड़ता में होकर दूर तक नदी का प्रवाह चला गया है। गह में पड़नेवाले सैकड़ों ऊँचे-नीचे पाषाण गहरों में वह महाघोष खण्ड-खण्ड होता सुन पड़ता है। चट्टानों की विषप भूमि कटि तक ऊँचे गुल्मों में पड़ी हुई हैं। उन्हों में होकर जल-सोकरों के कुहासे को चीरती हुई दोनों बहनें आगे बढ़ी। कुछ दूर चलने पर झरने के इक्षिण की ओर वा गुफ़ा दीखी, जिसे ऊपर से अंजना ने चीन्हा था। गुफा के द्वार में जो दृष्टि पड़ी तो पलक थमे ही रह गये ...एक शिलातल पर पल्यंकासन धारण किये, एक दिगम्बर योगी समाधि में मेरू-अचल हैं। बालक-तो निर्दोष मुख-मुद्रा परम शान्त है। होठों पर निरवच्छिन्न आनन्द की मुसकान दीपित है। श्वासोच्छ्वास निश्चल हैं। नासिका के अग्रभाग पर दृष्टि स्थिर है। मस्तक के पीछे उद्भासित प्रभामण्डल में, गुफा के पाषाणों में छुपते रत्न प्रकाशित हो उठे हैं। कुछ ऐसा आभास होता है जैसे ऋद्धियों के ज्योतिपुंज, रह-रहकर मनिके बाल-शरीर में से तरंगों की तरह उठ रहे हैं। अंजना और वसन्त को प्रतीत हुआ कि जैसे उस दर्शन मात्र में भव-भव के दुख विस्मरण हो गये हैं। दोनों बालाओं के अंग-अंग में सैकड़ों क्षतों से रक्त बह रहे हैं। इन शिसष-कोमल देहों पर लज्जा ढाँकने को मात्र एक तार-तार वसन शेष रह गया है। जटा-जूट बिखरे केश-पत्तों, काँटों और वन्य-फूलों से भरे हैं। सानयन, विनत मस्तक कुछ क्षण वे खड़ी रह गयीं। फिर वे मानो असंज्ञ होकर उस शिलान्तल पर मुनि के चरणों में आ पड़ीं-और फूट-फूटकर रोने लगीं। मुक्तिदूत :: [67
SR No.090287
Book TitleMuktidoot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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