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________________ पाठकों में यह उपन्यास बेहद लोकप्रिय हुआ । लेखक के पास ऐसे अनेक पाठकों से आये पत्र, इसके प्रमाण हैं। इतना ही नहीं, कई पाठकों की जीवन धारा इस कृति को पढ़कर बदल गयी । भानुक इसे बारम्बार पढ़ते नहीं अघाते थे, और ऐसे कई लोग लेखक के देखने में आये, जिन्हें इस किताब के कई-कई पैराग्राफ और वार्तालाप जबानी वाद हो गये थे। किसी भी कृति की इससे बड़ी सार्थकता और क्या हो सकती है | और अब 1972 के अक्तूबर में एक चमत्कारपूर्ण घटना घटी। श्री महावीर जी में दक्षिण कर्नाटक के एक प्रतापी, विद्वान और सारस्वत दिगम्बर जैन श्रमण मुनिश्री विद्यानन्द स्वामी से लेखक की अचानक भेंट हुई। मुनिश्री बोले- "मैं गत बीस बरसों से 'मुक्तिदूत' के लेखक को खोज रहा हूँ। बस में इस उपन्यास श्री नित्य सिरहाने रखकर सोता था। इसी को बारम्बार पढ़कर मैंने हिन्दी सीखी। मैं अब तुम्हें छोड़ेंगा नहीं। मुझे तुम्हारी कलम चाहिए आगामी महानिर्वाणोत्सव के उपलक्ष्य में तुम्हें भगवान् महावीर पर एक उपन्यास लिखना होगा” आदि । जन्मजात जैन होकर भी जैन मुनियों से मेरा कवि-मानस कभी प्रभावित और आकृष्ट न हो सका। मगर तीर्थंकर महावीर की साक्षात् प्रतिमूर्ति जैसे इस दिगम्बर नरसिंह के चरणों में मैं बरबस नतमाथ हो गया। मुनिश्री कोरे शुष्क तत्त्वज्ञानी नहीं, वे ज्ञान, तप, रस, भाव, सौन्दर्य, प्रेम, कला और साहित्य की एक जीवन्त समन्वय पूर्ति हैं। वे साम्प्रदायिक साधु नहीं, समग्र भारत की अनादिकालीन प्रज्ञा - परम्परा और सामाजिक संस्कृति के एक अनन्य प्रतिनिधि हैं। मेरे हर ऊहापोह को भेदकर, उनका शब्द मेरे लिए अनिवार्य आदेश हो रहा और फलतः आज जब मैं भगवान् महावीर पर उपन्यास लिखने में जुटा हूँ, तो मेरी सरस्वती ने ज्ञान, भाव, सौन्दर्य और रस के अपूर्व प्रज्ञा स्रोत मेरे भीतर मुक्त कर दिये हैं। इस अनन्त वैभव को समेटना कठिन हो गया है । और फिर 1975 के गत जनवरी महीने में एकाएक मुनिश्री की प्रेरणा से, रचना के सत्ताईस वर्ष बाद, कोटा के 'विश्व धर्म ट्रस्ट' ने इस कृति को रु. 2501 के पुरस्कार से सम्मानित किया। उस दिन एक अद्भुत अनुभूति हुई इस रचना के कर्तृत्व से मैंने अपने आपको मुक्त महसूस किया। मुझे प्रत्यक्ष प्रतीति हुई कि इसे मैंने नहीं रचा, तीर्थंकर महावीर की कैवल्य ज्योति में आज से ढाई हजार वर्ष पूर्व ही 'मुक्तिदूत' लिखा जा चुका था। इससे अधिक कृतार्थता किसी कृति और कृतिकार की और क्या हो सकती हैं I मेरी इस कर्तृत्व-मुक्ति का सारा श्रेय भगवद्पाद गुरुदेव श्री विद्यानन्द स्वामी को है। और मेरी इस धन्यता के संवाहक हैं, कोटा के 'विश्व-धर्म- ट्रस्ट' के स्तम्भ :: 22 ::
SR No.090287
Book TitleMuktidoot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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