SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 149
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ है, कि उधर माथा किसी कटीली शाखा या तने से जा टकराया है। रास्ता चारों ओर से भूल गया है। उधर से उधर और उधर से इधर से टकराती चक्कर खाती फिर रही हैं। चेहरे पर और दंह में रक्त और पसीना एकमेक होकर वह रहा है। शरीर के राधे राधे से पीड़ा और प्रहार का वंदन वह उठा है और उसी प्रथवण में -आकर अन्तर के गम्भीर आँसू भी खो जाते हैं। जैसे उनकी कुछ गिनती ही नहीं है। अपनी ही करुणा के प्रति भीतर के अत्यन्त निर्दय और कठोर हो गयी है। अर इस पापिन देह पर और करुणा, जिसके कारण ही यह सब झेलना पड़ रहा है। दिल - छिलकर, विध-विधकर इसका तो निःशेष हो जाना ही अच्छा है। आर भीतर प्रहार लेने के लिए भी एक अवश्य आकर्षण और वासना जाग की है। उन से खिंची हुड बेतहाशा और अनजाने वे अपने की उस अदृश्य और अमोघ चार पर फेंक रही हैं। वह धार जो चंतन को अचेतन के आवेष्टन से मोह-मुक्त कर देगी। कि फिर नग्न और जवात्य चेतन इस सारी प्रहारलीला और अवरुद्धता में से अन्तगामी होकर अनाहत पार होता चलें । I ... फिर एक सुदीर्घ वंदना के आक्रन्द-उच्श्वान मे वन- देश ममरा उठा। अंजनी की हलका सा चंत आया। मर-सर करते हुए दो-चार गीले पत्ते ऊपर से झर पड़ । उसने पाया, उस निचिड़, निर्जन अटवी में, पुरातन पत्रों की शय्या पर वह लेटी है पास बैठी वसन्त मूक-एक आँसू टपका रही है। उसने देखा कि उसकी जीजा की सारी देह और चेहरा, जहाँ-तहां काँटों ने विकर क्षत-विक्षत हो गया है। शतों में से रह-रहकर रक्त बह रहा है। अश्रु-निविड़ आँखों से, एक विवश पशु की नरम, पुतलियों में तीव्र जिज्ञामा तुलगायें, वसन्त उस अंजना की ओर ताक रही है। उस वेदना के उपंग में अंजना ने अपना प्रतिविस्व देख लिया। लगा कि लोहित अनुराग से झरते हुए पम्प - सम्पुट मे वे हो फिर मुसकरा उठे हैं...! कैसा दम और भयावह हैं यह सम्मोहन, यह आवाहन | उसने पाया कि रक्ताम्बर ओढ़े वह अभिसार के पथ पर चल रही हे ..... ..और सुदुर क्षितिज को धनी रेखा पर उसे दीखा आकाश की अनन्त नीलिमा को चीरता वह युवा चला आ रहा है। शिशु-सी अवोध है उसकी यमकराहट । शुभ्र हिम-पर्वतों का वह मुकुट धारण किये है। वक्ष पर पड़ी है वनों की मालाएँ । और कटि के नीचे सात समुद्रों के जल बसन बनकर लहरा रहे हैं। जलों में अतल खाइयों की अन्धकार - राशि औब रही है। उसका लाल फूलों का धनुष तनता की जा रहा है, और उसकी मोहिनी पथ बनकर गंग को खींच रही है...! वसन्त अपने आंचल में, अंजना के शरीर में जहां-तहाँ निकल आये रक्त का पोट रखी थी कि अंजना ने एकाएक उसका अथ पकड़कर याम लिया और हंसी हई यांनी I इस छवि को मरा नहीं यह की रखा यही तो है। लोचनां रुकने मक्तिल
SR No.090287
Book TitleMuktidoot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy