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________________ है, और उन्हीं के लिए संसार पे उसका जीवन है। अब कन्याएं सयाना हुई हैं, देखें कौन अतिथि आकर उन्हें सौभाग्य का दान करेगा: लड़कियाँ सकरुण, सरला आँस्वाँ से एकटक अंजना और वसन्त की ओर निहार रही थीं। पिता के करुण कण्ठ स्वर ने उनके पुखड़ों पर एक निःशद रुलाई निरखेर ती भी ! अपने बारे में जब अंजना और वसन्त ने कुछ भी सूचित नहीं किया, तो वृद्ध ने भी पर्यादा नहीं लांघी । कुलशील का कोई भी प्रश्न उसने अपने मुंह पर नहीं आने दिया। अंजना ने आप ही इतना बता दिया कि वे आदित्यपुर की रहनेवाली हैं और इस समय यात्रा पर काम का समय होते ही वृद्ध, अपनो दोनों कन्याओं को अतिथियों की सेवा में नियुक्त कर, अपना हल उठा, बैलों को हाँकता हुआ खेत पर चला गया। बालाओं से अंजना ने उनकी दिनचर्या और काम-काज जाने। फिर आप भी बसन्त को साथ ले उनके साथ फलों के बाग़ में चली गयी । वहाँ फल संचय, फलों की छटनी, पक्षियों से फलों की रक्षा का प्रबन्ध आदि अनेक कामों में वे उनकी सहयोगिनी हुई। पिता की आज्ञानुसार, समय पर लाकर लड़कियों ने भोजन अतिथियों के सामने रखा । जो भी सवेरे के फलाहार की तप्ति ने भोजन की आवश्यकता नहीं रहने दी थी, फिर भी लड़कियों का मन रखने के लिए अंजना और वसन्त ने उनके साथ ही बैठकर थोडा-थोड़ा भोजन किया। थोड़ी ही देर के साहचर्य में उन्होंने पाया कि वे बालाएँ उनसे ऐती अभिन्न हो पड़ी हैं, जैसे आदिकाल की सहचरियाँ ही हों। और तभी अंजना का मन मर्त्य मानव की खण्ड-खण्डता और अवश बिछोह के प्रति एक अन्तहीन करुणा से भर उठा। कैसे समझाए वह इन अबोध बालाओं की--वह सांसारिक जीवन मात्र के भाग्य की अनिवार्यता और एकता का बोध जिस केन्द्रीय बिन्दु पर है, वह क्या सहज अनुभव्य है? सान्ध्य-फलाहार के बाद बावड़ी की सीढ़ियों पर बैठी वसन्त और अंजना के बीच उनके प्रस्थान की बात चल रही थी। सुनकर वे दोनों लड़कियाँ उदास हो गई । सूनी, अवसन्न आँखों से दिशाओं को ताकती हुई, वे एक-दूसरे से विछुड़कर इधर-उधर घोलने लगीं। एकाएक बड़ी लड़की सहमी-सी पास आकर खड़ी हो गयी। उसकी आंखों में जैसे जन्म-जन्म की बिछोह कथा साकार होकर मूक-प्रश्न कर उठी। अंजना समझ गयी। उसने उसे पास खींचकर छाती से लगा लिया, और बिना बोले हो उसके गाल पर हाथ फेरती हुई उसे पुचकारती रही। लड़की अनायास पूछ बैटी"तुम कहाँ चली जाओगी कल?" सचमुच अंजना के पास इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं था। तभी एक अव्याहत आत्मीयता के भाव से उसका सारा प्राण जैसे उसमें से स्फूतं होकर दिगन्त के छोरों तक व्याप्त हो गया। पाकनदूत : 15
SR No.090287
Book TitleMuktidoot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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