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________________ "जा निर्लज्जे पर 62. जनर्ध न हो जाए... क्षत्रिय का शस्त्र स्त्रीवात का अपराधी न बन बेंट... नहीं तो तुम दोनों का... ओफ़..." कहते-कहते राजा सिंहासन को मसनद पर लुढ़क पड़े। वसन्त ने सत्य का प्रकट करने में कुछ भी उठा न रखा था। उसे लगा कि मनुष्य को वाणी में इससे अधिक कुछ नहीं कहा जा सकता। शायद अपना की इच्छा से पर वह सभी कुछ कह गयी है। उसे स्वयं हीं जो भान नहीं रहा था। पर राजा के पास यह सब कुछ सुनने के लिए कान नहीं थे। वसन्त चुपचाप वहाँ से उठकर चली गयी। रास्ते में एक बार उसके जी में आया कि माँ का हृदय ही पुत्री की इस बेबसी को समझ सकेगा। क्यों न वह राजमाता के पास जाए। पर उसने सोचा कि माँ का हृदय तो अपराधिनी बेटी के लिए भी पसीजेगा ही, पर उसका क्या वश है? पुरुष - शासन के पाषाणी कपाट जो उस हृदय पर लगे हैं-राजा का जो रूप उसने देखा है- उसके आगे माँ क्या बोल सकेगी? साथ ही उसे यह भी लगा कि यह सब करके शायद यह अंजना के साथ विश्वासघात भी कर रही है। शायद परोक्ष में उसका अपमान करती फिर रही है। रथ में जिस अंजना को बात करते उसने सुना था - उसे ऐसी दयनीय बना देना उसे सह्य नहीं है। कुछ ही देर में सामन्त महोत्साह और कुमार प्रसन्नकीर्ति ने आकर पाया कि राजा सिंहासन की पीठिका पर अर्ध-मूर्च्छित से पड़े हैं। आँखों से उनके आँसू बह रहे हैं। पहले तो दोनों जन विस्मय से स्तब्ध हो रहे। फिर महोत्साह अपने उत्तरीय से हवा कर राजा को चैत में लाये। राजा को इन दोनों से कोई दुराव नहीं था । संक्षेप में उन्होंने वृत्त कहा। साथ ही उस पर अपना कठोर निर्णय सुनाकर वे चुप हो गये। कुमार प्रसन्नकीर्ति का मन सुनकर हाय-हाय कर उठा। पिता का वज्र-कठोर निर्णय सुनते-सुनते उनके जी में आया कि वे उनका मुँह बन्द कर दें- पर राजा की वह भीषण मूर्ति देखकर उनकी हिम्मत न हुई । भीतर-भीतर उनका जी बहुत टूटा कि ये बहन का पक्ष प्रतिपादन करें पर क्या है आधार? और वस्तुस्थिति जैसे श्री उसमें कौन-सी विषमता सम्भव नहीं थी? पर महोत्साह से न रहा गया। वे साहस बटोरकर बोले "राजन, आदित्यपुर की रानी केतुमती की दुष्टता तो जगत्-प्रसिद्ध है। वह अधर्मिणी है - और नास्तिक-सूत्र पर चलनेवाली यह लोक में विख्यात है। स्वभाव की वह बहुत ही कर्कशा है। पर अंजना के त्याग और तपस्या के जीवन की कथा तो लोक में प्रसिद्ध है। उसे लोग कहते हैं सती देवी, वसन्तमाला से बात का ठीक-टोक पता लगाना चाहिए। नहीं तो उतावली में अनर्थ हो जाएगा। आप ले धीर-धुरन्धर वीर का ऐसे मामलों में अधीर होना उचित नहीं - देव अन्याय न ड़ों - " धनः ।।।
SR No.090287
Book TitleMuktidoot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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