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________________ ही कुछ लोक को अर्पित करने योग्य जुटा सकी, तो उस दिन वापस आऊँगी, और लोक के प्रति अपना देय देकर उसका ऋण चुकाऊँगी। मेरे सत्य को सिद्ध होने में अभी देर है, जीजी। जब वह प्रकट होगा तो अपना काम आप करेगा, फिर चाहे कितनो दूर और कहीं भी क्यों न रहूँ। तब किसी के भी मन में मेरे लिए दुराग्रह और कषाय नहीं जाग सकेगा: प्रेम ही जागेगा। तब मेरी सामर्थ्य होगी, और मुझे अधिकार भी होगा कि मैं सबके बीच आकर सबकी हो सकूँ और सबको अपना सकूँ। उसो दिन आऊँगी जीजी | - आज तो मैं सबकी अपराधिनी ही हूँ, और सबके दुःख का कारण ही हो सकूँगी । देने को है मेरे पास केवल कलंक को कथा..." "तुझे पाकर यह जीवन धन्य हुआ है, अंजनो! तुझे छोड़कर मैं कहीं जा नहीं सकूँगी, यह तू निश्चय जानना । पर अपनी जीजी की एक बात तझे माननी ही होगी। लू नगर की सीमा पर ही रहना और मैं एक बार महाराज के पास जाऊँगी। सत्य उन पर प्रकट करूँगी, देखें वे क्या कहते हैं। इसके बाद तेरा हो निर्णय मुझे मान्य होगा । तुझे छोड़कर मैं इस लोकालय में रह सकूँ, यह इस जन्म में और जीते जी मुझसे नहीं हो सकेगा। मेरे गले पर हाथ रखकर कह दे, तू मेरी यह अन्तिम विनती अस्वीकार नहीं करेगी।" कहते-कहते वसन्त ने अंजना का हाथ लेकर अपने गले पर रख लिया। अंजना की आँखों में आँसू छलछला आये। उसने लेटे-लेटे ही एक बार आँखें उठाकर वसन्त के मुख की ओर देखा और बोली " तुम्हें अपने लिये ही नहीं भेज रही हूँ, जीजी, पर तुम्हारे पतिदेव ने और उन बालकों ने क्या अपराध किया है, जो उन सबसे बिछुड़कर तुम्हें छीने जा रही हूँ । पूर्व भव में जाने किसको बिछोह दिया था, सां तो इस भव में झेल रही हूँ, और अब तुम्हें बिछुड़ाकर कहाँ छूछूंगी, यही देख लेना, जीजी!.. और मैं कुछ न कहूंगी...” अंजना की आँखों में आँसू उफनते ही आये। वसन्त ने अपने आँचल से उन्हें पोंछते हुए कहा “तेरे दुख से अपने दुख को अलग नहीं देख पा रही हूँ, अंजन विवश हो गयी हूँ। जो कर रही हूँ, उसमें दायित्व मेरा ही है। तेरा संकल्प वह नहीं है, जो कर्म तुझे बाँधेगा । घर जाकर सब ठीक कर आऊँगी। निर्णय हो चुका है, अंजन, दुविधा अब नहीं है ।" एक-दूसरे के हाथ अपने को सौंपकर दोनों बहनें मानो निश्चिन्त हो गयीं। ऐसा अप्रैल भीतर सध गया है कि जैसे वचन का विकल्प अब दोनों के बीच सम्भव ही नहीं है । चुप और बन्द होकर अपने आप में वे एकीभूत हो रही हैं। और ऐसे ही न जाने कब दोनों की आँख लग गयी। यांजनों की दूरी लाँघता हुआ रथ चला जा रहा था, पर वे दानां लड़कियाँ उस संघर्ष और संकट की अनिश्चित घड़ी में 1.3-4 मुकादून
SR No.090287
Book TitleMuktidoot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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