SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 122
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ही वाली थी कि उस रात में आकर खड़े हो गये और राह रोक ली ! क्या वह सब झूट था, जीजी, क्या वह मात्र अभिनय था? अपनाया तो है ही, पर और भी परीक्षा लिए चाहते हैं तो य वसन्त ने देखा कि कैसो अबोध है यह लड़की! बाहर की यह ठोस दुनिया इसके सम्मुख हैं ही नहीं। मीतर का जो रास्ता है, वहीं इसके लिए एकमेव सत्य है। परिस्थिति इसके लिए सहज उपेक्षणीय है। निःशंक उसे तोड़ती हुई यह चली जा रही हे निर्द्वन्द्व और अकेली । " अपने बाहर की दुनिया के प्रति अपने सभी इष्टजनों के प्रति इतनी निर्मम हो जाओगी, बहन अपने आत्मीयों पर अपने जन्म देनेवाले जनक और जनेता पर भी, क्या तुम्हारा विश्वास और प्रेम नहीं रहा? अपनी सास की दुष्टता के लिए, अपने सभी स्नेहियों को ऐसा कठोर दण्ड मत दो। सारी दुनिया को इतनी निष्ठुर मत सपझो, अंजना अपनी जन्मभूमि महेन्द्रपुर को छोड़कर तुम और मैं कहीं जा नहीं सकेंगे ।" " बाहर की दुनिया की अवज्ञा करूँ, ऐसा भाव रंच मात्र भी नहीं है मन में । और कौन-सी शक्ति है, जो ऐसा कर सकी है? मिथ्या है वह अभिमान । लोक है, इसी से तो उसका ज्ञाता द्रष्टा ईश्वर भी है। लोक से क्या वह अलग है? फिर लोक से द्रोह करके, उससे विमुख होकर, मेरे होने का क्या मूल्य है? और तब क्या मैं रह भी सकूँगी। लोक और माता-पिता, सबकी कृतज्ञ हूँ कि उन्हीं के कारण तो मैं हूँ। और सास-ससुर का और किसी का भी दोष इसमें नहीं है। दोष तो अपने ही पूर्व संचित कर्मों का है, और उसका फल अकेले ही भोगना होगा। अपने किये पापों का फल बाँटती फिरूँ, यह मुझसे नहीं हो सकेगा पुण्य फलता तो वाँटकर ही कृतार्थ हो लेती। अपने किये का दण्ड उन्हें नहीं देना चाहती, इसी से तो वहाँ जाने की इच्छा नहीं है । उपेक्षा का भाव किसी के भी प्रति नहीं है। किसी के भी प्रति कोई आक्रोश या आरोप भी मन में जरा नहीं है। पर सबको देने को मेरे पास दुःख ही दुःख है, और वैसा करने का अधिकार मुझे नहीं है । जन्मभूमि के प्रति आत्मीयों के प्रति और लोक के प्रति शत शत बार मेरी दूर से ही बन्दना है। हो सके तो उन सबसे कहना कि अंजना को वे अन्यथा न समझें।" - "तुम भूलती हो अंजन ! तुम मनुष्य और उसके प्रेम में ही अविश्वास कर रही हो । यदि दुःख में ही मनुष्य, मनुष्य का नहीं है, तो फिर आत्मा आत्मा के बीच का अटूट सम्बन्ध ही मिथ्या है। संकट की इस घड़ी में ही तो उस प्रेम की परीक्षा है । "प्रेम कहाँ नहीं है, जीजी? उस पर अविश्वास किये कैसे बनेगा? प्रेम है कि हम सब जी रहे हैं। सत्ता का विस्तार ही प्रेम के कारण है। पर मनुष्य मात्र की अपनी विवशताएँ भी तो हैं। वे भी तो अनेक मिध्यात्वों और कर्म-परम्पराओं से बँधे हैं। इसी से भीतर यह रही प्रेम की सर्वव्यापिनी धारा व्यक्ति-व्यक्ति के बीच मुक्तिदूत 132::
SR No.090287
Book TitleMuktidoot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy