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________________ है. असत्य पर ही खड़ी हैं जिनकी सारी नीतियों और मयांदाएँ-1 करेंगे 'सुनके' और मेरे बीच का न्याघ-विचार वे किन कानों सुन सकेंगे उस रात की कथा, जिनके हृदय और आत्मा ही मर चुके हैं। नहीं, उसे कुछ भी कहना नहीं है-चाहे उसे यहीं गाड़ दिया जाए। उनके और मेरे बीच नहीं है मृत्यु की दाधा!' -और फिर एक अपार बल से वह भर उठी। ध्यान में 'उन' चरणों को ही पकड़ वह आत्मस्थ और ग्रुप पड़ी रह गयी। वसन्त ने राजमाता के पैर पकड़ लिये। उन्हें शपथें दिला-दिलाकर उसने उस रात की कथा कह सुनायी। प्रमाण-स्वरूप अंजना के हाथ में से बलय और मुद्रिका निकालकर दिखाये। परिणाम और भी उलटा हुआ। पुत्र माँ से विमुख है, और इस कुलटा के पास वह आया होगा? युद्ध से लौटकर, क्षत्रिय की मर्यादा लोप कर वह जाया होगा इसके पास? एक मर्मान्तक ईष्या और क्रोध से रानी फिर पागल हो गयी। कषाय में प्रमत्त सुलगती आँखें अन्धी हो रही थीं। वलय और मुद्रिका को पहचानकर भी अनदेखा कर दिया। प्रेम और सद्भाव ही जब हृदय से निर्मूल हो चुका था, मिथ्यात्व का ही जब एक आवरण चारों ओर पड़ा था, मनुष्य को मनुष्य का हो आदर और विश्वास जब नहीं रहा, तो निर्जीव वलय और मुद्रिका की क्या सामर्थ्य कि वे सत्य को प्रमाणित करते । राजमाता ने व्यंग्य का अट्टहास करते हुए बसन्त पर प्रहार किया "छि कटिनी, त हो माया न रचेगी तो और कौन रचेगा? ऐसे दुष्कृत्य कर, अब भी झूठ बोलते और शील बखानते, जबान नहीं कर पड़ती? बड़ी आयी है सतयन्ती, सती बहन के गुण गाने!...दुःशीलाओ, जाने कितने पाप का विष तुमने इस महल में अब तक फैलाया होगा। पूर्वजों की पुण्यभूमि में नरक जगाया है तुम दोनों ने मिलकर! जाओ, इसी क्षण जाओ, निकलो मेरे महल से! हटो आँखों के सामने से, अब तुम्हें देख नहीं सकूँगी..." कहकर रानी ने द्वार की ओर देखा और साथ आयी हुई विश्वस्त अनुचरियों को पुकारा। उन्हें संक्षिप्त आज्ञा दी "इन दोनों को ले जाकर नीचे खड़े रथ में बिठाओ!" । फिर झपटती हुई राजमाता बाहर निकलीं। सारथी को बुलाकर आज्ञा दी___ "सुनो अऋर, महेन्द्रपुर की सीमा पर इन दोनों को छोड़कर शीघ्र आओ, और मुझे आकर सूचित करो!" . इधर झासियाँ उटा, उसके पहले ही बसन्त ने उठाकर अंजना को अपनी गोद पर ले लिया। प्रगाढ़ मुंदी आँखों के आँसुओं से सारा मुख धुल गया है। पर अब सूख गये हैं वे आँसू । देह जैसे विदेह हो गयी है। झकझोरकर एक-दो बार वसन्त ने कहा "अंजन-ओ अंजन!" मुश्मित :. 129
SR No.090287
Book TitleMuktidoot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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