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________________ ... अंजना को चेत आया... बिना दृष्टि उठाये ही, पचनंजय के पैरों में सिर रखकर वह प्रणत हो गयी। पवनंजय ने झुककर, बाहुऍ पकड़ उसे उठा दिया। दृष्टि उसकी अब भी झुकी ही है। पति के एक हाथ को धीरे से अपने हाथ में लेकर बोली “सुनो, मेरी विवशता की कथा भी सुनते जाओ ।... दुनिया की आँखों की ओट तुम कब मेरे पास आये और कब चले गये, यह सब तो कोई नहीं जानता और नही जानेगा ! तब पीछे से किसी दिन कुछ हुआ...तो परित्यक्ता अंजना पर कौन विश्वास करेगा... Ph कहते-कहते अंजना का कण्ठ अन्तर के आँसुओं से काँप आया । पवनंजय के भीतर अलीम उल्लास का वेग था । पुरुष को अपनी तृप्ति और अपना जीतव्य मिल चुका था। अपने सुख के इस चांचल्य और उतावली में नारी की इस विवशता को समझने में वह असमर्थ था । तुरन्त भुजा पर से बलय, और उँगली से एक मुद्रिका निकालकर अंजना के हाथों में देते हुए पवनंजय बोले"पगली हुई है अंजन, मुझे लौटने में क्या देर लगनेवाली है? चुटकी बजाते में सब ठीक करके, तुरन्त ही लौटूंगा। तेरी दी शपथ जो साथ है। फिर भी अपने मन के विश्वास के लिए चाहे तो यह रख ले !" वलय और मुद्रिका हाथ में लेकर फिर अंजना ने पैर छू लिये और उठकर I बोली "निश्चिन्त होकर जाओ, मन में कोई खटका मत रखना..." आँसू भीतर झर गये। होठों पर मंगल की मुसकराहट थी ! प्रहस्त द्वार पर खड़े थे। दूर से ही उन्होंने झुककर देवी को प्रणाम किया। पवनंजय उनके साथ ही लिये I पौ फटते-फटते यान दृष्टि से ओझल हो चला। अंजना और वसन्त छत पर खड़ी एकटक देखती रहीं, जब तक वह बिन्दु बनकर शून्य में लय न हो गया । 22 पलक मारते में दिन बीतने लगे। कटक का कोई निश्चित संवाद आदित्यपुर में नहीं आया । अभी कुछ दिनों पहले केवल इतना ही सुना था कि युद्ध बहुत भयंकर हो गया है । जम्बूद्वीप के अनेक मण्डलीक छत्रधारी युद्ध में आ उतरे हैं। पक्षों में ही आपस में विग्रह हो गये हैं। स्थिति जटिल होती जा रही है। सुलझने के अभी कोई चिह्न नहीं दीखते । रोज़ के नित्य कर्मों में अंजना जो भी आश्वस्त भाव से संलग्न है पर इस मुक्तिदूत : 123
SR No.090287
Book TitleMuktidoot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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