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________________ अपने बाँधे बन्धन तुम्ही खोलो, रानी! मेरे निर्वाण का पथ प्रकाशित करो!...तुम्हीं ने तो पुकारा था उस दिन...!" "मुक्ति की राह मैं क्या जानूँ? मैं तो नारी हूँ, आप हो जो वन्धन हूँ और सदा बन्धन ही तो देती आधी हूँ। मुक्ति-मार्ग के दावेदार और विधाता हैं पुरुष! वे आप अपनी जानें..." ___अगाध विसर्जन और सुखातिरेक से भर आये पवनंजय इस सण अपने स्वामी नहीं थे। एकाएक वे उठ बैठे और उन पैर दाबते दोनों मृदुल हाथों को अपनी ओर खींचते हुए गद्गद कण्ठ से बोले "नहीं चाहिए मुक्ति-मझे बन्धन ही दो. रानी! ओ मेरे बन्धन और मुक्ति की स्वामिनी...' ___ भाषा की सीमा अतीत हो गयी। दलती रात के अलस पवन में वासन्ती फलों की गन्ध और भी गहरे और मधर मर्म का सन्देशा दे रही थी। आत्मा के अन्तरतम गोपन-कक्ष आलोकित्त हो उठे । अनाहत मौन में सब कुछ गतिमय था! ग्राह-नक्षत्र, जल, स्थल, आकाश और हवाएँ, सभी कुछ इस एक ही सत्य की धुरी पर एकतान और एक-सुर होकर नृत्यमय हैं। कहाँ है इस अनन्त आलिंगन के सिंह का कल? इन्द्रियों की बाधा निमज्जित हो गयी। देह के सीमान्त पिघल चले। पर आत्माओं को कहाँ है विराम? नग्न और मुक्त, बे जो एक-दूसरे में पर्यवसित हो जाने को विकल हैं। पुरुष की वे दिग्विजय की आभेमानिनी भुजाएँ नहीं बाँध पा रही हैं उस तन, सक्ष्म कल्प-लता को। जितना ही वे हारती हैं, आकलता उतनी ही बढ़ती जाती है। अखण्ड और अपराजिता है यह लौ, जितना ही यह बाँधना चाहता है वाह उतनी ही ऊपर उठ रही है, वह हाथ नहीं आ रही है! अपरिसीम हो उठा है पुरुष का अपराध-और उसका अनुताप | पर वह नारी देने में चूक नहीं रही है। दान-दाक्षिण्य का स्रोत अक्षत धारा रो बह रहा है। पुरुष ने हारकर पाया कि व्यर्थ और विफल है इसे बाँधने की उत्कण्ठा; इस प्रवाह के भीतर तो बह जाना है, स्वयं ही विसर्जित हो जाना है। निर्वाण आप ही कहीं राह में मिल जाएगा! अतीत है वह इन सारी कामनाओं से। पुरुष ने छोड़ दिया अपने को, उस बहाव की मरज़ी पर.., चौथे पहर का पंगल वाद्य राजद्वार पर बज उठा! अंजना की नींद खुली। अकल्पनीय तृप्ति की गहरी और मधुर नींद में पवनंजय सो रहे थे। पर अंजना जानती है अपना कर्तव्य । इस क्षण उन्हें रुकना नहीं है । उन्हें लौटाना ही होगा-दिन झाँकने के पहले । हाँ, उन्हें जगाना होगा। वह धीमे-धीमे पगलियाँ सहलाने लगी। पवन के स्पर्श में जागरण का सन्देश है । अंजना ने पाया कि वह भर उठी है, एक मम-मधुर भार से बह दबी जा रही है...। शेष रात्रि की शीर्ण चाँदनी झरोखे की राह कक्ष में आकर पड़ रही है। मुक्तिदूत :: 121
SR No.090287
Book TitleMuktidoot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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