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________________ "देव पवनंजय आये हैं। वे अभी-अभी तुमसे मिलना चाहते हैं। उस और के कोण-वातायन पर प्रतीक्षा कर रहे हैं। बाहर प्रहस्त खड़े हैं; वे तुरन्त तुम्हारा आदेश सुनना चाहते हैं!" अंजना सुनकर नीरव और निस्पन्द खड़ी रह गयी। कुछ क्षण एक गहरी स्तब्धता व्याप गयो। ___ "ये आये हैं...जीजी, यह क्या हो गया है तुम्हें...?" "मुझे कुछ नहीं हो गया अंजन, प्रास्त स्वर्ग पड़े हैं। उन्होंने बाली-अभी आकर मुझे जगाया है। कहा है कि कटक की राह में छोड़ देव पवनंजय गुप्त यान से आये हैं-केवल तुम्हें मिलने! अवसर की गम्भीरता को समझो, बोलो उन्हें यथा कहूँ?" "वे आये हैं...युद्ध की राह से लौटकर मुझे मिलने...?" और मानो नियति पर भी उसे दया आ गयी हो ऐसी हँसी हैंसकर यह बोली। "भाग्य देवता को कौतुक सूशा है कि नींद से जगाकर वे अभागिनीं अंजना के वर्षों के सोये दुःख का मजाक किया चाहते हैं...!...समझी...अब समझी; जीजी, ...क्या तुम्हें ऐसे ही सपने सताते रहते हैं, मेरे कारण? द्वार पर प्रकट होकर सुनाई पड़ी प्रहस्त की विनम्र वाणी "स्वप्न नहीं है, देवी, और न यह विनोद है। प्रहस्त का अभिवादन स्वीकृत हो! देव पक्नंजय उस ओर प्रतीक्षा में खड़े हैं। वे देवी से मिलने आये हैं और उनकी आज्ञा चाहते हैं!" सन्देह की गुंजाइश नहीं रही। फिर एक गहरा मौन व्याप गया। ___ "मुझसे मिलने आये हैं वे:...और मेरी आज्ञा चाहते हैं? पर मेरे पास कहाँ हैं वह, वह तो उन्हीं के पास है। वे आप जानें ।...सारी आज्ञाओं के स्वामी हैं वे समर्थ पुरुष!...अकिंचना अंजना का, यदि विनोद करने में ही उन्हें खुशी है, तो वह अपने को धन्य मानती है...!" ___और कोई पाँच ही मिनट बाद दीखा, चाँदनी के उजाले में वह पूर्णकाय युवा राजपुरुष! सिर की अवहेलित अलकों में मणि-बन्ध चमक रहा है। देह पर युद्ध की सज्जा नहीं है; हैं केवल एक धवल उत्तरीय । द्वार की देहली पर आकर वे विठक गये।...फिर सहज माथा झुकाकर भीतर प्रवेश किया। कक्ष में कुछ दूर जाकर पे ठिठक गये। आगे बढ़ने का साहस नहीं है। सामने दृष्टि पड़ो-तल्प के पायताने वह कौम खड़ी है? सिर से पैर तक पक्नंजय काँप-काँप आये। सारे शरीर में एक सनसनी-सी दौड़ गयी-मानो किसी दैवी अस्त्र का फल सेयें-रोयें को बींध गया। अपना ही भार संभालने का बल पैरों में नहीं रह गया है। घटने टूट गये हैं, कमर टूट गयी है। दृष्टि जो दलक पड़ी है तो ठहरने को स्थान नहीं पा रही है। वीर का अंग-अंग पत्तों-सा थरथरा रहा है। अभी-अभी मानो भागकर लौट जाना चाहते हैं। 112 :: मुक्तिदूत
SR No.090287
Book TitleMuktidoot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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