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मन्दिर
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संस्कार से संस्कृति भी सम्पन्न करवा सकते हैं | इन बालक/बालिकाओं के आठ वर्ष के बड़े होने तक इस त्याग की जिम्मेदारी माता-पिता या पालन-पोषण करने वाले कुटुम्बीजनों पर रहती है। सभी को चाहिए की इन बालक/बालिकाओं को आठ वर्ष तक अपने हार्थो से खान-पान में, औषधि आदि में भी मद्य-मांस-मधु का सेवन नहीं करायें।
आठ वर्ष की उम्र के बाद इन बालक/बालिकाओं को समझा दें कि ये बस्तुएं (मद्य-मांसमधु आदि) अत्यन्त अपवित्र हैं । तुम्हें बचपन में इनका नियम दिया गया था। अतः अभी तक हमने तुम्हारे नियम का पालन कराने का पूर्ण ध्यान रखा ! अब तुम इस नियम को पूर्णतः पालन करना, अन्यथा "निन्दित वस्तु के सेवन से तुम्हारा सुन्दर जीवन भी निन्दित हो जायेगा। प्रशंसित वस्तु के सेवन से तुम्हारे जीवन में पूज्यता-पवित्रता आयेगी जिससे तुम्हारा आत्म-गौरव बढ़ेगा और तुम दुर्गतियों के दुःखों से बच जाओगे।"
आज जैन धर्म के आचार्य-साधु एवं प्रबुद्ध व्यक्ति इस बात का चिन्तन-मनन-विचार एवं अनुभव कर रहे हैं कि हमारी धर्म संस्कृति के संस्कारों की कमी, हमारी युवा पीढ़ी में होती जा रही है। लेकिन उनके संस्कारों के विकास के लिये कोई ठोस उपाय नहीं खोजा-सोचा जा रहा है जो तुरन्त कार्य रूप में परिणत्त हो । तब लगता है कि
"साहिता के तमाशाई हर दूसरे यास का
अफ़सोस तो करते हैं इमदाद नहीं करते।" ठीक ही है, अफ़सोस करना उनका, जो स्वयं तैरना नहीं जानते, वे इबने वाले को कैसे बचा सकते हैं? जिन्हें स्वयं तैरना सीखने में रुचि नहीं, वे मात्र पुस्तक पढ़कर तैरना थोड़े ही सीख सकते हैं । अतः जिन्हें पानी में तैरना आता है, वे पानी में डूबते हुये व्यक्ति को नहीं देख सकते । परन्तु तुरन्त कूदकर उसे बचाने का प्रयत्न करेंगे या जो तैरना जानते हैं उन्हें उसे बचाने की सूचना चिल्ला-चिल्लाकर देते हैं, जिससे कोई तैरने वाला व्यक्ति इस आवाज को सुनकर तुरन्त आ जाता है और पानी में डूबने वाले को बवाने का प्रयत्न करता है। पुनः उस हल्ला मचाने वाले व्यक्ति के मन में भी पानी में तैरने की भावना एवं साहस आ जाता है। कई बार तो सबते हुए व्यक्ति को बचाने की प्रबल भावना में, बिना तैरने वाले व्यक्ति पानी में कूद जाते हैं जिससे इबने वाले के साथ स्वयं ही इय जाते हैं। अतः पानी में तैरना सीख लेना चाहिए अन्यथा पानी में डूबना/डुबाना सुनिश्चित है।
बहुत पुरानी बात है। एक सौदागर समुद्र के रास्ते से व्यापार करता था नाव में बैठकर | व्यापार करते-करते उसे बहुत दिन हो गये । व्यापार में वह यहाँ से माल नाच में लादकर ले जाता एवं दूसरे द्वीप में उस माल को बेचकर वहाँ से कम लागत का माल नाव में भरकर ले आता | इस प्रकार यह सौदागर दुहरा व्यापार कर खूब धन कमाता था ।