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________________ मन्दिर (५०) शिखर-गुम्मन में इस जीव का मरण हो गया तो सुनिश्चित समझो कि उसका मरण घर में नहीं हुआ बल्कि तीर्थराज सम्मेद शिखर से हुआ । क्योंकि मरण में प्राण निकलना महत्वपूर्ण नहीं बल्कि किस उपयोग-ध्यान-चिन्तन से प्राण निकले, यह महत्त्वपूर्ण है। इसी प्रकार से अन्य तीर्थो, मन्दिरों का ध्यान भी लगा सकते हैं। Met | शिखर-गम्मज ॥ आकाश की शक्ति अनन्त है, वह चारों तरफ असीम है । अतः हमारे द्वारा प्रेषित ध्वनि यथार्थ स्थान पर नहीं पहुंच पाती है | आपने एक प्रयोग देवा या किया होगा कि किसी मैदान या खेत में खड़े होकर, यदि किसी दुर खड़े हुए व्यक्ति को बुलाना है, तो दोनों हाथों की मुंह पर खड़ी अंजुली बनाकर आवाज देने से वह व्यक्ति जल्दी से आवाज को सुन लेता है। किसान बन्धु भी खेतों में काम करते हुए, अपनी आवाज को दूर तक पहुँचाने के लिए मुख या कान के पास अपने हाथ का सहारा जरूर लेते हैं। इससे सिद्ध है कि ध्वनि को बिखराव से रोकने के लिए हार्थो का सहारा लिया जाता है। ठीक उसी प्रकार से हमारे जो भाव-भाषादि मन्दिर जी में भक्ति आदि के माध्यम से प्रगट होती है, वह बाहर की ओर ध्यवस्थित ढंग से प्रसारित हो | इसके साथ ही उस ध्यान को पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण में बाँधने के लिये एवं आवाज में शक्ति ऊर्जा उत्पन्न करने के लिये शिखर या गुम्मज का निर्माण किया जाता है। आपने स्वयं अनुभव किया होगा कि मन्दिर जी के गर्भ गृह में भक्ति, पूजा, स्तुति पढ़ने में अधिक मन लगता है। शिखर जी के पहाड़ पर चन्द्रप्रभ एवं पार्श्वनाथ भगवान की टोंक पर अर्घ्य वोलने पर पूजा पढ़ने में विशेष आनन्द की अनुभूति होती है, कारण कि दोनों भगवानों के चरण चार दीवारी से बन्द है आवाज ऊपर गुम्मज शिखर से टकराकर पुनः लौटती है जिससे एक प्रकार का वायब्रेशन (कम्पन) पैदा होता है जां मन और मस्तिष्क के तन्तुओं में एक संगीत सुख-आनन्द पैदा करता है। ऐसे स्थानों में लोग दूर-दूर सं आकर भजन-पूजन पाठ आदि करते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि मन्दिर-गुफा आदि के अन्दर हम मात्र भावों को उत्पन्न करने वाले ही नहीं होते हैं, उन्हें पुनः प्रतिध्वनि के माध्यम से सुनने वाले भी हम होते हैं । इसलिये मूर्ति के ऊपर गुम्मज होती है, क्योंकि मन्दिर जी में होने वाले मंत्र-जाप्य, पूजा-पाठ, भजनकीर्तन आदि सं यहाँ के परमाणु वायु भी चार्ज होती है, इससे अधिक समय तक उसका प्रवाह वहाँ विद्यमान रहता है जिससे पुनः पुनः व्यक्ति को वहाँ पर आकर जप, ध्यान, पूजा-पाठ आदि करने का मन करता है।
SR No.090278
Book TitleMandir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages78
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size2 MB
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