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________________ मन्दिर (३३) चत्तारि दण्डक चत्तारि लोगुना लांका ने पार उत्तः । अरिहंता लोगुत्तमा लोक में अरिहंत उत्तम हैं। सिद्धा लोगुतमा लोक में सिद्ध उत्तम हैं। साहू लोगत्तमा लोक में साधु उत्तम हैं। केवलि पण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमा- केवली के द्वारा कहा गया धर्म उत्तम है। चत्तारि सरणं पव्वज्जामि म चार की शरण को प्राप्त होता हूँ। अरिहंता सरणं पव्यज्जामि अरिहंतों की शरण को प्राप्त होता हूँ। सिद्धा सरणं पबज्जामि सिद्धों की शरण को प्राप्त होता हूँ। साहू सरणं पयज्जामि साधुओं की शरण को प्राप्त होता हूँ । केवलि पण्णत्तो धम्मो सरणं पन्चज्जामि- केवली के द्वारा कहे गये धर्म की शरण को प्राप्त होता हूँ। इस प्रकार हाथ जोड़कर बोलतं हुए वेदी के सामने रखी हुई बेंच-चौकी आदि जिस पर द्रव्य सामग्री चढ़ाते हैं, हाथ या डिब्बी में लाये हुए चावल आदि द्रव्य को निम्न श्लोक बोलते हुए मन्त्र का उच्चारण करते हुए चढ़ायें उदक चन्दन तन्दुल पुष्पकः, चरु सुदीप सुधूप फलार्धकः । धवन मंगल गान रवा कुनेः जिन गृहे जिननाध-महं-यजे।। पाँच पुंज (डेरी) में "ॐ ह्रीं श्री गर्भ-जन्म-तप-ज्ञान-निर्वाण कल्याणक प्राप्तये जलादि अy निर्वपामीति स्वाहा” अथवा “ॐ ह्रीं श्री अरिहंत-सिद्ध आचार्य-उपाध्याय-सर्यसाधुम्यो जलादि अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।" इस प्रकार मंत्र बोलते हुए घढ़ाना चाहिये । अव प्रश्न यह उठता है कि मन्दिर जी की प्रतिमा अरिहंतों या सिद्धों की है फिर मंत्र में आचार्य-उपाध्याय-सर्वसाधु को सम्मिलित क्यों किया गया? इसका उत्तर यह है कि जब इन प्रतिमाओं के पंचकल्यापाक होते हैं। तब दीक्षा (तप) कल्याणक में, इनमें साधु-उपाध्याय एवं आचार्य परमेष्ठी की दीक्षा के मंत्रों के संस्कार किये जाते हैं। पुनः केवल ज्ञान कल्याणक में अरिहंतों के गुण एवं मोक्षकल्याणक में सिद्धों के गुण रूप मंत्रों के संस्कार किये जाते हैं । अतः पंचपरमेष्ठी की प्रतीक रूप प्रतिमा को इस तरह अर्घ्य चढ़ाने में कोई दोष नहीं हैं । अर्थ कहते हैं मूल्य को एवं अर्घ्य का अर्थ है मूल्यवान या यहुत कीमती होता है । परन्तु पूजा मंत्रों में अर्घ्य का मतलब जल फलादि आठों द्रव्यों का मिश्रण है। यथार्थ में जिन जल फलादि को हमने परिश्रम या धन आदि खर्च करके अपने स्वामित्व भाव से जोड़ा है। उस सामग्री को मूल्यवान मानते हुए अपने पूज्यों को समर्पण करते हुए उसके अधिकार-ममत्व-अपनत्य भाव का त्याग करना ही अर्ध्य है। कोई-कोई चावल का ॐकार, स्वास्तिक, ह्रीं श्री या चन्द्राकार सिद्ध शिला भी बनाते हैं।
SR No.090278
Book TitleMandir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages78
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size2 MB
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