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मदनजुद्ध काव्य
समी सैनिक पुण्यपुरकी दिशा में चले । तब विवेक राजाने (मदनको) आते हुए सुना । उस राजाने अपने चित्त के मध्य ऐसा विचार किया एवं मंत्रियोंसे पूछकर मंत्रणा की कि धर्मपुरी में श्री आदि जिनेश्वर प्रसिद्ध नाम वाले सुने जाते हैं, उन्हींके पास जाने पर में उबरूंगा (बनूंगा) और मदन के स्थान (पापपुर) को पिट दंगा ।
व्याख्या-जैनधर्ममें भाव तीन प्रकारके होते हैं—शुद्ध, शुभ और अशुभ । मदनराजाके रहने का स्थान पापपुरी है । क्योंकि यह एक कुशील पाप है । इस पाप में सभी पापों का निवास है । लोक में इसे व्यभिचार, मैथुन, रमण, भोग आदि नामों से पुकारते इसके तीव्राभिनिवेश में मनुष्य ऐसा अन्धा हो जाता है कि अगम्यागमन करता है । तिचिनी, तपस्विनी कन्या आदि का भी भोग करता है । हिंसा, झूठ, चोरी, परिग्रह आदि पाप होने से यही आत्मा पापपुरी बन जाती है । पुरुषार्थसिद्धयुपाय में योनि को तिल नाली की उपमा दी हैं । व्यक्ति विशेष इन सभी पापोंका एकदेश अथवा सर्वदेश त्याग करते हैं, उनकी आत्मा पुण्यपुरी कहलाती है । अणुव्रत, महाव्रत निवृत्ति-मार्ग में प्रधान होते हुए भी प्रवृत्ति में ही निष्ठ है । इनसे साक्षात् पुण्य का आश्रव होने से आत्मा पुण्यपुरी है। इससे भी ऊपर श्रेणी में आरूढ़ शुक्लध्यान विभूषित आत्मा शुद्धोपयोगी होने से मोह का नाश कर देने से धर्मपुरी कहलाती है । उस धर्मपुरी आत्मा में मोह तथा मदनराजा के लिये स्थान ही नहीं है । सभी प्रकार के विकारों से रहित शुभ, अशुभ से ऊपर शुद्ध उपयोग साक्षात् मोक्ष-स्वरूप है । वहाँ संवर निर्जर की प्रधानता हैं । अनन्त चतुष्टय गुण प्रकट हो चुके हैं या प्रकट होने वाले हैं । ऐसे अनन्तगुणों का अखण्ड पिण्ड आत्मा सदा के लिए धर्मपुरी बन जाता है, जो आत्मा इनकी शरण में जाता है, वह परमात्मा धर्मपी बन जाता है । इसलिए राजा विवेक ने पुण्यपुरी से आदि जिनेश्वर की शरण में जाने का विचार किया । गाथा छन्द :
इम करन गुज्झमंतो आयउ रिसहेस दूत सुभध्यानु । विवेक वेगि चल्ला बुल्लाबइ देव सरवण्णु ||५४।। __ अर्थ--इसीकारण भगवान् ऋषमेश का शुभध्यान नामक दूत राजा विवेक के पास आया और बोला कि भगवान् सर्वज्ञदेव ने गुप्त मंत्रणा के लिए तुम्हें शीघ्र बुलाया है ।
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