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मदनजुद्ध काव्य
ऐसा प्रबल दस्सह मदन राजा आया है, आया है कहकर देवगणभी तृण ग्रहणकर मदन राजाके साथ दौड़ चले ।।
व्याख्या--उपर्युक्त पंक्तियोंमें कविने एक रूपक उपस्थित किया है। पाँच इन्द्रियके भावोंको मदनराजा माना है : 'युवावरको त महान बतलाया है । संसारको कृप की उपमा दी है । जहाँ से निकलनेका मार्ग नहीं है । भगवान ऋषभदेव के पौत्र मरीचि चार हजार राजाओंके साथ दीक्षित हो गए थे परन्तु साधुचर्या का ज्ञान नहीं था, इस अज्ञानता के कारण उन्होंने अपना दर्शन मठ बनाया अर्थात् एक नवीन मत चलाया । सांख्यादि मतोंको घड़दर्शन कहते हैं तथा दर्शन का अर्थ श्रद्धान भी है। अत: ऊपर से देवशास्त्रगुरु का श्रद्धान अर्थ बतलाया साथ ही हिंसादि पापकर्मों से उदरपोषण करनेको प्रेरित किया, गृहस्थ रहकर भी साधु जीवन व्यतीत करनेका उपदेश दिया । मरीचि के प्रपंचमय उपदेश से अनेक भोली बुद्धिवाले जीव ठगे गए । सभी उसके दर्शन रूपी मठ में आ गए। वहाँ वे समी इन्द्रियविषयों में फंसकर अपने व्रतको नहीं सम्हाल सके । मदनराजाने सभीको इस प्रकारके संसार-कप में पहुंचा दिया, जहाँ से वे अपना उद्धार नहीं कर सके । इस संसार में चतुर्दिक विषयों की चकाचौंध ही फैल रही है । षट्पद छन्द :
जित सुभट बलवंड जिनिहि गज सिंह नवाइय जित्त दइत्त परचंड लोय जिनि कुमगहि लाइय जित्त देव बलिभद्ध धारि बहु रूप दिखालिय जित्त दुटु तिम्जंच घालि लाहु वणखंड जालिय अस्सपति गजप्पति नरप्पति भूपत्तिय भूहिय भरिय ते छलिय अछल टालिय अटल मयण नृपति परपंचु करि ।।५।।
अर्थ- मनुष्यगतिमें जितने सुभट (वीर योद्धा) वलवंड (प्रचण्ड शक्ति) वाले थे, जिन्होंने अपने बल से वन के महान् राजा गज, और सिंहों को झुका दिया था । अपने अधीन कर लिया था, (मदन राजाने) उन वीरोंको भी मोहिनी रूप से निर्बल बना दिया ।
लोकमें जितने प्रचण्ड दैत्य दानव थे, वे भी (मदन के द्वारा) पथभ्रष्ट हो गए । (देवियों के मोहित रूप से मोहित कर) उन्हें भी व्यसनकुमार्ग में लगा दिया ।
मनुष्यगति में बलभद्र थे (उमें उत्कृष्ट भातृप्रेम था) उसी मोह के