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प्रस्तावना
कवि बुचराज का मयणजुद्ध काव्य रूपक शैली का काव्य है, जिसका भव्य प्रासाद रूपक, उपमा, श्लेष, उत्पेक्षा आदि सादृश्यमूलक अलंकारों के आधार पर निर्मित हुआ है । काव्य में इनके प्रयोग अपने-अपने स्थान पर समुचित ढंग से सन्निविष्ट हुए हैं और उनमें कृत्रिमता नहीं आने पाई है । वस्तुतः जिन कवियों की प्रतिभा नवनवोन्मेषशालिनी प्रज्ञा से सम्बलिन होती है, उन्हें अलंकार-योजना के लिए प्रयास नहीं करना पड़ता।
कवि द्वारा प्रयुक्त कुछ प्रमुख अलंकारों का संक्षिप्त सोदाहरण परिचय यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है-.-. अनुप्रास
यस अलंकार सद-यंजना के प्रकटीकरण में सहायक होता है । इसमें रसादि के अनुकूल समान शब्दों की आवृत्ति होती है । वर्गों के साम्य में भी अनुप्रास अलंकार होता है । प्रस्तुत काव्य-ग्रन्थ में दोनों प्रकार के उदाहरण उपलभ्य हैं। यथा
"जन्न दोनउं बइठे एक सत्य । कलिकाल कहइ तब जोडि हत्थ (73) "जीवंतउ बैरी गयठ देखु जु कटिहइ सोजु । नहि तूं मदन न मोह भडु दुहू गवावइ खोजु (64) "दीनी कन्या सत्ति तिसु सुमति सरिस सुविशाल |
थापिउ रज्जु विवेकु थिरु घल्लि गलइ गुणमाल (11) श्लेष
श्लिष्ट पदों के योग से इस अलंकार की योजना की जानी है । अपने भावों में चमत्कार उत्पन्न करने के लिए कवि प्रायः इस अलंकार का प्रयोग करते हैं । उक्त कृति में कवि बूचराज ने अपने भावों को चमत्कृत करने हेतु इसका प्रयोग किया है । यथा
"पवण छत्तीस सुखि वसइ करइ न को परतांति । काचे कंचन गलिय महि पड़े रहहि दिन राति (25)
यहाँ पवण शब्द श्लिष्ट है । उसके दो अर्थ हैं, एक अर्थ समर्थ है और दूसरा अर्थ है वायु । आत्मा की दृष्टि से वायु और जातियों की अपेक्षा से समर्थ है।
इसी प्रकार 122वें पद्य में भी "राम'' शब्द श्लिष्ट है, जिसका एक अर्थ अकेला होता है और दूसरा अर्थ "रमण करता" हैं । निम्न पध में भी श्लेष का चमत्कार द्रष्टव्य है
1. वर्ण साम्यानुप्रासः काव्यप्रकाश, 9/104