________________
७७
मदनजुद्ध काव्य
वह क्षण भर लड़ता है क्षणभर में भाग जाता है और फिर छल पूर्वक लौटकरसंचरण कराने लगता हैं ।
व्याख्या - लोभकी महिमा अवर्णनीय है । वह साधुओंको भी निदान करा देता है । वे साधु "दुक्खक्खओ कम्मक्खओ" आदि रूप निदान करने लगते हैं । इसलिए कहा है – “मोक्षपि यस्याकांक्षा तस्य मोक्षेन विद्यते ।" श्री अकलंकदेवने तत्त्वार्थराजवार्तिकमें लोभके चार प्रकारोंका वर्णन किया है - १. आहारका लोभ, २. आरोग्यका लोभ, ३. यशका लोभ और ४. जीवितका लोभ । धनका लोभ, आहार लोभमें समाहित है । लोभको चार संज्ञाएं प्रत्येक जीवके साथ लगी हैं। वह लोभ सबको दुःखी करता है। एक बार उसने प्रभुको भी धोखा दिया। वह उपशम ( शान्त) हो गया। पुनः उदयमे (होश में आ गया । वह अन्य कषाय रूप भी हो जाता है । इसीका अभिप्राय हैं कि क्षण भरमें भाग जाना, फिर क्षण भरमें आ जाना । ऐसा कार्य नौवें गुणस्थानमें कृष्टिकरणके समय होता I, जब कषायोंको कृश करते हैं लोभका नाश सबसे अन्तमें होता है ।
घडे
दसमड़ गुणठाण लगु बलु करइ अधिकु नहि जाण तिसु देखि परक्कमु खलिय संतोषु तव सु उठिउ
राइ
रिसाइ ।। ११३ ।।
अर्थ - यह लोभ दसवें स्थान पर चढ़ जाता है और पराक्रम दिखलाने लगता है तथा (प्रभुको) उसके आगे जाने नहीं देता, जिसके कारण राय ( आदीश्वर प्रभु ) कुछ स्खलित होते हैं, कुछ पीछे खिसकते हैं तब सन्तोष नामक वीर रिसाकर ( क्रोधित होकर ) उठा ।
देइ
व्याख्या--कर्म ग्रन्थोंमें लोभका वर्णन विस्तारपूर्वक किया गया है। दसवें गुणस्थानमें उदय रूप सूक्ष्य लोभ है । वह ध्यान रूप परिणामों में अबुद्धिपूर्वक विकार उत्पन्न करता है । उस समय उससे कर्मों का (१६ प्रकृतियोंका ) आस्रव भी होता है- "पढमं विगयं दंसणचउ जसउच्चं च सुहुमंते ॥ ( ५ ज्ञानावरण, ५ अन्तराय ४. दर्शनावरण, १ यश, १ उच्चगोत्र ) ।
समयसारमें लोभको ज्ञानका जघन्य परिणाम कहा गया है। यह लोभ सबको सता रहा है । जर, जोरु, जमीन, इच्छाएं ये सभी लोभकी पर्यायें हैं, जो इच्छाओंका दास होता है, वह सभी का दास होता है
"इच्छायाः ये दासास्से दासा भवंति सर्वलोकस्य ।। " अतः लोभ सर्वथा त्याज्य है ।