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मदनजुद्ध काव्य मोह-पराजय
कवि यशःपाल द्वारा रचित "मोह पराजय'' नामक नाटक इसी रूपकात्मक शैली में विरचित नाटक है । वैश्यवंशी धनदेव और रुक्मिणी के पुत्र यशःपाल ने अभयदेव के राज्य में सन् 1229-1232 ई० में इस नाटक की रचना की। यह अत्यन्त महत्वपूर्ण रचना है । इसकी कथावस्तु पाँच अंकों में नियोजित की गई हैं । ऐतिहासिक नामों के साथ लाक्षणिक चरित्रों का सम्मिश्रण अत्यन्त कुशलता के साथ किया गया है ।
नायक कुमारपाल, उसके गुरु हेमचन्द्र और विदृषक को छोड़कर अन्य सभी पात्र भावात्मक हैं । इस कथानक का उद्देश्य भी कुमारपाल द्वारा मोह-विजय प्राप्त करना है और नाटककार को इसमें आशातीत सफलता प्राप्त हुई है।
अन्त में कुमारपाल द्वारा जिनेन्द्र भगवान और हेमचन्द्राचार्य की स्तुति के साथ कृपा और विवेक की परिधि में अपने उज्ज्वल यश के प्रकाश में पोहान्धकार को विलीन कर देने की प्रतिक्षा री की गई है । इसी बापम के साथ नाटक समाप्त हो जाता है। प्रबोध चिन्तामणि
वि० सं० 1462 मे स्तम्भनक नरेश की राजधानी स्तम्भतीर्थ में जयशेखरसूरि ने "प्रबोध-चिन्तामणि'' की रचना की । उक्त रचना में सात अधिकार हैं। कवि ने पहले अधिकार में ही इस बात का संकेत कर दिया है कि इसमें पद्यनाथ तीर्थकर और उनके शिष्य धर्मरुचि मुनि का आख्यान निरूपित किया गया है । इसमें भी मोह और विवेक का संघर्ष दिखलाया गया है ।
इसमें नाटककार ने सामाजिक-स्थिति का यथार्थ और पार्मिक चित्रण किया है, जो अत्यन्त महत्वपूर्ण है । उनकी यह उक्ति अत्यन्त मर्मस्पर्शी है, जिसमें कहा गया है कि "महावीर की सन्तान होने पर भी आज के साधु विभिन्न गच्छों में विभाजित हैं
और पारस्परिक सौहार्द के स्थान पर एक दूसरे के दुश्मन बने हुए हैं । ज्ञानसूर्योदय
"ज्ञानसूर्योदय नाटक' की रचना वादिचन्द्रसूरि ने वि० सं० 1648 में मधूकनगर में की थी । इस रचना का आधार 'प्रबोध-चन्द्रोदय'' है । उक्त रचना में भी रूपकात्मक शैली के माध्यम से आक्रामक प्रतिक्रिया को व्यक्त किया गया है । इसमें बौद्धों और श्वेताम्बरों का उपहास किया गया है । मदन-पराजय
मदनपराजय संस्कृत-भाषा में रचित एक प्रतीकात्मक रचना हैं। इसके रचनाकार भरन्तुगित के पुत्र नागदेव हैं, जो अपभ्रंश मयणपराजयचरिउ के लेखक