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मदनजुद्ध काव्य शुभभावोंको डरा देते हैं । वर्षाके मेघके समान चारों ओर बादकी तरह गड़बड़ी ला देते हैं । मत्स्यके समान शुभ भाव उलट-पलट कर, डर कर प्राण छोइनेको तैयार हो जाते हैं । इसी प्रकार मदन भी रतिके वचनोसे आहत हो गया और उसी दिशाकी ओर चल दिया, जहाँ धर्मपुरीमें भगवान आदीश विराजमान थे । गाथा छन्द :
चल्लियउ भयणणाहो धरि सुंदर-वयण चित्त मज्झम्मि ।। कलिकालि ताम सुप्पियउ उट्ठायउ मोह-भडु जाइ ।।६९।।
अर्थ-(वह) मदननाथ सुन्दरीके वचनोंको अपने चित्तके मध्य में रखकर चल पड़ा । तब (उसीसमय) कलिकालने आकर सोते हुए मोहभटको उठाया ।
व्याख्या-मदन और सुंदरी राग भाव रहित आत्मा और रागयुक्त परिणति है । इन दोनोंमें कोई भेद नहीं है तथापि कर्ता और क्रियाकी अपेक्षा भेद है । काम विजयी, निर्मल आत्माके निवासी भगवान ऋषभदेवने चारित्र, मोहनीय कर्मका क्षय कर दिया इसलिए रागकी उत्पत्ति उनमें हो ही नहीं सकती, फिर भी मदन नवनिधि छन, चमर, सिंहासनादि का रूप धारणकर भगवानकी तरफ चला और राग परिणति का उत्पादक निमित्त बना । निमित्तों के सम्बन्धसे तत्काल शक्ति क्षीण होनेसे विजयी आत्मा भी हार जाता है और रागी बन जाता है । शील व्रत छूट जाता है तथा मैथुन संज्ञा उत्पन्न हो जाती है । पुरुषवेद रूप कर्म प्रकृतिका आस्रव और बन्ध होता है । ऐसी परिणति उत्पन्न करने के लिए वेदकर्मके परमाणु चले। परमाणु अर्थात् कर्मवर्गणा सर्वत्र विद्यमान हैं । वे ही खिचकर पहुँच जाती हैं और आत्म-प्रदेशों पर बन्ध योग्य होती हैं । यही मदननाथ का चलना है । कलिकालमें राग परिणति अधिक होती हैं इसलिए कविने कलिकालका उल्लेख किया है । मोहका उपशम हो गया था । कलिकालने उस सोए हुए मोह वीरको जगाया ।
उट्टियड मोहराओ दिट्ठो नरु सुरवीरु परचंडो । तूं कवणु कत्य वासहि कहु आयउ कवण कज्जेण ।।७०।।
अर्थ--मोहराजाने उठकर (अपने सम्मुख) प्रचण्ड, शूरवीर मनुष्यको देखकर पूछा कि तू कौन है, कहाँ तेरा निवास है, तू कब आया है और किस कार्यसे आया है?
व्याख्या-कलिकाल सभी प्रकारसे पाप परिणतियोंका घर है । यह मिथ्या आचरण वाला बड़ा शूरवीर, तेजस्वी तथा सभी पापों में बड़ा पाप