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कषायजय-भावना
___ मुनि श्री कनककीर्ति विरचित कषायजय-भाबना.
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येन कषाय चतुष्कं ध्वस्तं संसारदुःखतरुबीजम् । प्रणिपत्य तं जिनेन्द्र कषायजय-भावना वक्ष्ये ।।१।। अर्थ - जिसने संसार के दुःखरूपी तरु के बीज कषाय-चतुष्कों को ध्वस्त कर दिया है, उस जिनेन्द्र प्रभु को नमरकार करके मैं कपायजय-भावना का
कथन करूंगा। * भावार्थ - जो विजेता हैं, वे जिन हैं। रागद्वेषादि अरिन् जयतीति
जिनः। जिन्होंने राग-द्वेष आदि शत्रुओं को जीत लिया है, वे जिन हैं। * जिनेन्द्र प्रभु ने क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार कषायों को नष्ट कर | दिया है। ग्रंथकर्ता ने जिनेन्द्र प्रभु को नमस्कार करके कषायजय-भावना | नामक ग्रंथ की रचना करने का संकल्प किया है।
क्रोध का फल
· कोपी नाशयति क्षणेन विपुलां सत्सञ्चितां सम्पदम्। कोपी च त्यजति द्रुतं प्रणयिनी भार्यां स्वकीयामपि।।
कोपी पुण्य जनोचितान् सुखकरान् ..............। । प्रायः कोप वशस्त्यजेत्तृणमिव स्वं जीवितव्यम् जनः||२|| अर्थ- क्रोधी मनुष्य संचित विपुल संपदा का क्षणमात्र में विनाश कर देता है। क्रोधी मनुष्य स्वकीय (अपनी) प्रणयिनी (प्राणप्रिय) पत्नी को भी शीघ्र
छोड़ देता है। क्रोधी मनुष्य पुण्यजनोचित सुखकर------ 原来来来来来来来来来来来来来来来来来来来来来来来来