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कषायजय-भावना
(परमात्मप्रकाश २/११४)
अर्थात् जैसे लोहे का सम्बन्ध पाकर अग्नि नीचे रखे हुए निहाई के ऊपर घन की चोट, संडासी से खेंचना, चोट लगने से टूटना इत्यादि दुःखों को सहन करती है, ऐसा देख ।
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इस दोहे की टीका करते समय आचार्य श्री ब्रह्मदेव ने लिखा है। यथा लोहपिण्डसंसर्गादग्निरज्ञानिलोकपूज्या प्रसिद्धा पिट्टनक्रियां लभते तथा लोभादिकषायपरिणतिकारणभूतेन पंचेन्द्रियशरीर सम्बन्धेन निर्लोभपरमात्मतत्त्व भावनारहितोजीवो घनघातस्थानियानि नारकादि दुःखानि बहुकालं सहत इति ।
अर्थात् - लोहे की संगति से लोकप्रसिद्ध देवता अग्नि दुःख भोगती है। यदि वह लोहे का संग न करे तो इतने दुःख क्यों भोगे ? उसीतरह लोह अर्थात् लोभ के कारण से परमात्मतत्व की भावना से रहित विवादृष्टि जीन घनघात के समान नरकादि दुःखों को बहुत काल तक भोगता है।
पानी की प्यास तो पानी पीने पर कम पड़ती है, परन्तु आकांक्षाओं की प्यास कभी नहीं बुझती। ज्यों-ज्यों लाभ बढ़ता जाता है, त्यों-त्यों लोभ बढ़ता जाता है। परपदार्थों को सुख का कारण मानने से, आध्यात्मिक विचारों के चिन्तन के अभाव से अथवा मोहनीय कर्म के उदय से लोभ 'कषाय जागृत होती है।
लोभ कषाय पर विजय प्राप्त करने के लिए १. बारह भावनाओं का चिन्तन करें।
२- अपने से कम वैभव वाले लोगों को देखें ।
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३. सतत ऐसा विचार करें कि मैं जब जन्मा था तब मैं कुछ लेकर नहीं आया था और मैं मर जाऊंगा तब भी मैं कुछ नहीं ले जा पाऊंगा। फिर मैं | लोभ क्यों करूं? जब मेरा अल्प आरंभ और परिग्रह से काम चल सकता है, तो मैं अधिक की चाहना से संक्लेशित क्यों होऊं ?
कषायों से भयभीत आत्मा को कषायों का स्वरूप और फल जानकर उनका त्याग करना ही चाहिये ।
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