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कषायजय-भावना
राजा ने अपने सैनिकों को आदेश दिया कि सेठ पिण्याकगन्ध को उपस्थित किया जाय। राजसेवक सेठ पिण्याकगन्ध के घर गये। सेठ तो गाँव गया हुआ था। अतः विष्णुदत्त को ही राजदरबार में उपस्थित होना पड़ा। विष्णुदत्त को वस्तुतः कुछ भी जानकारी नहीं थी । इसलिए वह राजा को संतुष्ट नहीं कर सका। क्रोधित हुए राजा ने सेठ पिण्याकगन्ध के परिवार को कारावास में डाल कर उसकी संपत्ति जब्त करा ली।
जब सेठ पिण्याकगन्ध घर की ओर आ रहा था तो उसे रास्ते में ही अपने परिवार की दुर्दशा का पता चल गया। उसने मन में विचार किया कि ये पाँव न होते तो मैं कहीं बाहर गाँव न जा पाता। यदि मैं बाहर गाँव को * नहीं जाता तो आज ये विपत्ति नहीं आती। ऐसा विचार कर उसने अपने पैरों पर बड़ा पत्थर मार लिया। उस कारण उसके पैर टूट गये। आर्त्तध्यान से | मर कर सेठ नरक में गया।
तात्पर्य यह है कि लोभ में फँस कर सेठ ने इसलोक में अपने परिजनों का वियोग व असहनीय पीड़ा सहन की तथा मरकर नरक की वेदनाओं का वेदन किया। लोभ इसलोक तथा परलोक के लिए दुखकारी है। अतः लोभ का त्याग करना ही श्रेष्ठ है।
इमे कषायाः सुखसिद्धिबाधकाः । इमे कषायाः भववृद्धिसाधकाः ।। इमे कषायाः नरकादिदुःखदा । इमे कषायाः बहुकल्मषप्रदाः ||३८||
अर्थ - ये कषायें सुख की प्राप्ति में बाधक है। ये कषायें भव की वृद्धि करने वाली हैं। ये कषायें नरकादि दुःख को देने वाली हैं। ये कषायें बहुत कल्मषों को उत्पन्न करने वाली हैं।
भावार्थ- आत्मा के अनाकुल परिणामों को सुख कहते हैं। सुख को प्राप्त करने के लिए आत्मा में कषायों का अनुदय होना आवश्यक होता है। ये कषायें आत्मा को शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक दृष्टि से सुखी *********** ‹°************