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कषायजय-भावना
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तक कलुषित रहना पड़ा। आचार्य श्री गुणभद्र ने लिखा है -
चक्रं विहाय मिजाक्षणबाहुसंस्थ, यत्प्राव्रजननु तदैव स तेन मुञ्चेत् । क्लेशं किलाप स हि बाहुबली चिराय, मानो मनागपि हतिं महतीं करोति।।
(आत्मानुशासन- २१७) अर्थात् -अपनी दाहिनी भुजा पर स्थित चक्ररत्न को छोड़ कर बाहुबली ने * जो दीक्षा ली थी, उससे वे उसीसमय मुक्त हो सकते थे। परन्तु चिरकाल तक क्लेश पाते रहे। ठीक ही है. क्योंकि थोड़ा-सा भी मान बहुत बड़ी हानि * करता है।
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भरत और बाहुबली की कथा
भगवान आदिनाथ ने अपने राज्य के विधिवत् भेद करके सभी * पुत्रों को उनका अधिपति बनाया तथा आत्मकल्याण की भावना को मन में |
धारण कर मुनिदीक्षा ग्रहण कर ली। एक बार भरत के शस्त्रागार में
चक्ररत्न प्रकट हुआ। यथासमय दिम्विजय के लिये निकले हुए भरत ने | *षट्खण्ड पर अपना अधिपत्य कायम कर लिया। दिग्विजय करके जब वे *
लौटे तब चक्ररत्न गोपुर के पास ही रुक गया। चिन्तित हुए भरत ने अपने
पुरोहित को बुलाकर इसका कारण पूछा। पुरोहित ने विनयपूर्वक कहा कि * Pal" हे देव ! अभी आपके भाई अजेय हैं। जबतक आप सर्वविजित नहीं हो
जाते तबतक यह चक्र नगरप्रवेश नहीं करेगा।" भरत ने अपने सेनापतियों * से विचार विमर्श करके अपने भाइयों के पास चतुर दूतों को भेजा। दूतों ने
भरत के आज्ञानुसार जाकर उनके भाइयों को चक्रवर्ती का सन्देश सुनाया। * सारे राजकुमार चक्रवर्ती का सन्देश सुन कर आपस में मन्त्रणा करने लगे। |*
तदुपरान्त वे भगवान आदिनाथ के समवशरण में गये। उन सब ने दैगम्बरी | दीक्षा धारण कर ली। ***KKARMATKAR** *