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कषायजय-माबा
अर्थ - क्रोध को अग्नि से संतप्त हृदय वाला न दान देता है, न पूजा करता है, न शील का पालन करता है, न स्वाध्याय करता है, न मौन धारण | करता है और न व्रतों को धारण करता है। इनके अतिरिक्त भी उसके कोई गुण नहीं होते हैं। भावार्थ - क्रोध सब से बड़ा दुर्गुण है। इसके होने पर सारे तत, तप और | ज्ञानादिक गुण निरर्थक हो जाते हैं। संतप्त हृदय वाले मनुष्य की सम्पूर्ण * साधना फलीभूत नहीं होती। क्रोध के दुष्परिणामों को प्रकट करते हुए आचार्य श्री सोमप्रभ लिखते हैं
फलति कलित श्रेयः श्रेणीप्रसूनपरम्परः। प्रशमपयसा सिक्तो मुक्तिं तपश्चरणद्रुमः।। यदि पुनरसौ प्रत्यासत्तिं प्रकोपहविर्भुजो।
भजति लभते भस्मीभावं तदा विफलोदयः।। अर्थात् - शान्त परिणाम रूपी जल से अभिसिंचित तपश्चरण रूपी वृक्ष अनेक पुण्य समूह रूपी पंक्तियों से शोभायमान होता हुआ मुक्तिफल को फलता है। यदि वह तपोवृक्ष क्रोध रूपी अग्नि की निकटता को प्राप्त हो | जाय, तो फिर बिना फल दिये ही दग्ध हो जाता है।
नीतिकारों का मानना है कि अजीर्णः तपसः क्रोधः क्रोध तपस्या का अजीर्ण है। क्रोध वृत्तियों को अशान्त करके साधना को भ्रष्ट | कर देता है। क्रोध मनुष्य के सर्वनाश का एकमात्र संकेत है। आध्यात्मिक जीवन के लिए क्रोध भयंकर विष है। प्रेम, सत्य, न्याय, मैत्री आदि जीवन विकासक गुणों को क्रोध क्षणमात्र में भस्म कर देता है।
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कोपी न शेते, न सुखेन भुइ.क्ते, परस्य दुःखं सततं समिच्छन्। प्रजल्पितै र्वा बहुभिः किमत्र,
कोपो नृणां मूलमनर्थ राशेः ।।९।। 来来来来来来来来来来来来来来来来来来来来来来来来来来