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________________ भगवान ऋषभदेव का लोकव्यापी प्रभाव ऋग्वेद के केशी ऋषभदेव ही थे, इसका समर्थन भी ऋग्वेद की निम्न ऋचा से होता है'कर्द वृषभो युक्त प्रासीद प्रावधीत् सारथिरस्य केशी । दुर्युक्तस्य व्रतः सहानस ऋच्छन्ति मा निष्पदो मुद्गलानीम् ।। ऋग्वेद १० | १०२६ अर्थात् मुद्गल ऋषि के सारथी (नेता) केशी वृषभ, जो शत्रु का विनाश करने के लिये नियुक्त थे, उन की वाणी निकली ग्रर्थात् उन्होंने उपदेश किया। जिसके फलस्वरूप मुद्गल ऋषि की जो गायें (इन्द्रियों) जुते हुए दुर्धर रथ (शरीर ) के साथ दौड़ रही थीं; वे निश्चल होकर मौद्गलानी ( मुद्गल की स्वात्मवृत्ति) की ओर लौट पड़ीं । के इस प्रकार यह निष्कर्ष निकलता है कि वैदिक साहित्य में जिन वातरशना मुनियों का वर्णन मिलता है, वे दिगम्बर जैन श्रमण मुनि हैं और जहां केशी का वर्णन प्राया है, वह केशी अन्य कोई नहीं, ऋषभदेव ही हैं। भगवान ऋषभदेव का व्यक्तित्व अत्यन्त सशक्त और तेजस्वी था । उनकी मान्यता देश और काल की सीमामों का प्रतिक्रमण करके देश-देशान्तरों में फैल गई। वे किसी एक सम्प्रदाय, जाति और धर्म के नेता नहीं थे । वे तो कर्म और धर्म दोनों के ही साद्य प्रस्तोता थे। सांस्कृतिक चेतना और बौद्धिक जागरण प्रेरक के ही थे । मानव को प्राद्य सभ्यता को एक दिशा देने का महान् कार्य उन्होंने किया था। सारा मानव समाज उनके अनुग्रहों और उपकारों के लिये चिर ऋणी था। वर्ग, जाति और वर्ण के भेदभाव के बिना सारी मानव जाति उन्हें अपना उपास्य मानती थी । उनके विविध कार्यकलापों और रूपों को लेकर विभिन्न देशों श्रोर कालों में उनके विविध नाम प्रचलित हो गये । शिव महापुराण में उन्हें अट्ठाईस योगांववारों में एक अवतार माना । श्रीमद्भागवत में उन्हें विष्णु का प्राठव अवतार स्वीकार किया । वेदों में ऋषभदेव की स्तुति विविध रूपों में विभिन्न नामों से की गई है । अनेक ऋचाओं में उनकी स्तुति श्रग्नि, मित्र, यम आदि नामों से की गई है । ताण्ड्य, तैत्तिरीय और शतपथ ब्राह्मण में अग्नि के नाम से उन्हें था (आदि पुरुष ) मिथुन कर्त्ता ( विवाह प्रथा के प्रचलन कर्त्ता, ब्रह्म, पृथ्वीपति, धाता, ब्रह्मा, सर्व विद् (सर्वज्ञ) कहा गया है। वेदों में उन्हें जातवेदस ( जन्म से ज्ञान सम्पन्न ) रत्नधाता, विश्ववेदस ( विश्व को जानने वाला) मोक्षनेता और ऋत्विज ( धर्म संस्थापक) बताया गया है। वेदों में अनेक स्थानों पर वृषभदेव की स्तुति की गई है। यहां उनमें से कुछ मन्त्र दिये जा रहे हैं, जिनका देवता ऋषभ है स्वं रथं प्रभसे योधमुष्यमावो युध्यन्तं वृषभं दशद्युम् । त्वं तु वेतसवे स चाहस्वं तुज गृणन्समिन्द्र तू तो ॥ जनेतर प्रत्थों में ऋषभदेव ८३ इसका आशय यह है कि युद्ध करते हुए ऋषभ को इन्द्र ने युद्ध सामग्री और रथ प्रदान किया । प्रतिसृष्टो अपां वृषभोऽतिसृष्टा श्रग्नयो दिव्याः — ऋग्वेद ४ । ६ । २६ । ४ - अथर्ववेद १६ व काण्ड, प्रजापति सूक्त | इन्द्र द्वारा राज्य में वर्षा नहीं होने दी । तब वृषभदेव ने खूब जल बरसाया 1 इसी ऋचा का आशय लेकर महाकवि सूरदास ने सूरसागर में लिखा हैंइन्द्र देखि ईरवा मन लायो। करिके क्रोध न जल बरसायो । ऋषभदेव सम ही यह जानी। कह्यो इन्द्र यह कहा मन आनी ॥ निज बल जोग नीर बरसायो । प्रजा सोग प्रति हो सुख पायो ।। ऋषभदेव की स्तुति परक अनेक मन्त्र भी वेदों में मिलते हैं १. वाण्ड्य ब्राह्मण २५६३ २. तैत्तिरीय ब्राह्मण ११७/२/३ ३०११०४१ शश१०१२ ३ शतपथ ब्राह्मण १०१४११५ शरा
SR No.090192
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size15 MB
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