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________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास रिरितानुरागमापौर प्रकृति जनपदो राजा नाभिरात्मजं समयसेतुरक्षायामभिषिच्य सह मवेव्या विशालायां प्रसन्न निपूणेन तपसा समाधियोगेन......महिमानवाप। - श्रीमद्भागवत ५।४।५ (टीका) प्रापौर प्रकृति पौराप्रकृतींचाभिव्याप्य विवितोऽनुरागो पस्मिन् । कथंभूतो नाभिः । जनपरः जनाः पौरादयः पदं प्रमाणं यस्य सः । प्रात्मजं धर्ममयांबा-रक्षणार्थमभिविश्य।......विशालायां वरमधमे। प्रसन्नः परानुद्देजकं निपुणं च सीव तेन उपासीनः सेवमानः कालेन तन्महिमानं जीवन्मुक्तिमवाप । -श्रीधर स्वामीकृत संस्कृत टीका काशी अर्थात् पुरवासियों और प्रकृति को अभिव्याप्त करने वाला जिनका प्रेम प्रसिद्ध है, और नगरवासियों को जो प्रमाणभूत थे ऐसे नाभिराज धर्म की मर्यादा की रक्षा के लिये अपने पुत्र वृषभदेव का राज्याभिषेक करके वदरिकाश्रम में प्रसन्न मन से घोर तप करते हुए यथासमय जीवन्मुक्त हो गये। उक्त कथन से नाभिराज और मरुदेवी के अन्तिम जीवन पर स्पष्ट प्रकाश पड़ता है। इसके अनुसार नाभिराज ऋषभदेव के राज्याभिषेक के बाद मरुदेवी के साथ बदरिकाश्रम में गये और वहां घोर तप करके जीवन्मुक्त हो गये। टीका में विशाला का अर्थ वदरिकाश्रम किया है। इस स्थान पर बदरी नामक झाड़ियों की बहुलता है। इस स्थान पर उस समय मुनिजनों का प्राश्रम रहा होगा । जिसके कारण इस स्थान को बदरिकाश्रम कहा गया है। निश्चय ही श्री नाभिराज की घोर तपस्या के कारण मनुष्यों का ध्यान इस स्थान की मोर प्राकष्ट हमा और जिस स्थान से उन्होंने जीवन्मुक्ति पाई, वह स्थान परम पावन तीर्थधाम बन गया और अपने पितामह की स्मृति में सम्राट भरत ने वहां एक भव्य मन्दिर बनवाया और उसमें तीर्थंकर ऋषभदेव की प्रतिमा विराजमान कराई। परम्परागत रूप से वह मन्दिर और मूर्ति प्रब तक विद्यमान हैं। निश्चय ही यह मन्दिर और मति वह नहीं है जो भारत ने बनवाई थी । मन्दिर का जीर्णोद्धार और नवनिर्माण होता रहा । मूर्ति भी बदल गई, किन्तु फिर भीमति ध्यानलीन पद्मासन से बैठे तीर्थकर ऋषभदेव की ही रही। इस सम्भावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि यहां भगवान ऋषभदेव का एकाधिक बार विहार हमा, समवसरण लगा, उसके प्रासपास तपस्या की और मुक्ति प्राप्त की। इसलिए स्पष्टतः यह जैन तीर्थ रहा है। १२. ऋषभदेव का लोकव्यापी प्रभाव ऋषभदेव को मान्यता सारे लोकमानस में छा गई थी। देश को समस्त जनता उन्हें प्रत्यन्त श्रवा की दृष्टि से देखती थी। उनके हर कार्यकलाप में उसे नवीनता और अपूर्वता प्रतीत होती थी । वह उनकी प्रत्येक गति विधि को बड़े विस्मय और भक्ति से देखती थी। जो कार्य उसे अद्भुत प्रतीत होता था, ऋषभदेव से उसकी स्मृति सुरक्षित रखने के लिये उस स्थान और तिथि को मान्यता देकर उस कार्य का सम्बन्धित तीर्थ स्मरण करती थी। यही कारण था कि उनकी गतिविधि से सम्बन्धित प्रत्येक स्थान तीर्थ बन मौर पर्व गया और प्रत्येक तिथि पर्व बन गई । वह परम्परा किसी न किसी रूप में आज तक सुरक्षित है। भगवान का जन्म मयोध्या में उमा था। भगवान के रहने के लिये इन्द्र ने उसकी रचना सर्वप्रथम की थी। कर्मयुग के पूर्वकाल में निर्मित यह सर्वप्रथम नगरी थी। इसी में भगवान ने जन्म लिया, इसी में बचपन,
SR No.090192
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size15 MB
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