SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 85
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास से ढके रहने के कारण वह रजतवर्ण दिखायी पड़ता है। दूसरे शृग कच्चे लाल मटमले पत्थर के हैं। मानसरोवर की ओर से इसकी चढ़ाई. डेढ़ मील की है जो बहुत कठिन है । कैलाश के शिखर के चारों कोनों में ऐसी मन्दिराकृतियां स्वतः बनी हुई हैं जैसे बहुत से मन्दिरों के शिखरों पर चारों ओर बनी होती हैं। तिब्बत की ओर से यह पर्वत ढलान वाला है। उधर तिब्बतियों के बहुत मन्दिर बने हुये हैं। तिब्बत के लोगों में कैलाश के प्रति बड़ी श्रद्धा है। मनेक तिब्बती तो इसकी बत्तीस मील की परिक्रमा दण्डवत प्रतिपात द्वारा लगाने हैं । लिग-पूजा इस शब्द का प्रचलन तिब्बत से ही प्रारम्भ हुमा। तिब्बती भाषा में लिंग का अर्थ क्षेत्र या तीर्थ है। अत: लिंग-पूजा का अर्थ तिब्बती भाषा में तीर्थ पूजा है। कैलाश और अष्टापद-प्राकृत निर्वाण भक्ति में 'अद्यावयम्मि ऋसहो' अर्थात् ऋषभदेव को निर्वाण भूमि अष्टापद बतायी है। किन्तु संस्कृत निर्वाण भक्ति में अष्टापद के स्थान में कंलाश को ऋषभदेव को निर्वाण भूमि माना है-कैलाश शंल शिखरे परिनिर्वतोऽसौ, शैलेशिभावमुपपद्य वषो महात्मा।' संस्कृत निर्माण काम में एक श्लोक में निर्माण क्षेत्रों का उल्लेख करते हुए कहा है-“सह्याचले च हिमवत्यपि सुप्रतिष्ठे।' इसमें सम्पूर्ण हिमालय की ही निर्माण क्षेत्र माना है। एक ही स्थान के लिये प्राचार्य ने तीन नाम दिये हैं। इससे लगता है, ये तीनों नाम समानार्थक मौर पर्यायवाची हैं । कहीं-कहीं हिमवान के स्थान पर धवलगिरि शब्द का भी प्रयोग मिलता है। यदि यह मान्यता सहो है कि ये सब नाम पर्यायवाची हैं तो कैलाश या अष्टापद कहने पर हिमालय में भागीरथी, अलकनन्दा और गंगा तटवर्ती बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री, यमुनोत्री से लेकर नर-नारायण, द्रोणगिरि, गौरीशंकर, नन्दा, त्रिशूली, पौर मुख्य कैलाश यह सम्पूर्ण प्रदेश ही निर्वाण क्षेत्र हो जाता है। हिमालय में स्थित सीथों को ध्यानपूर्वक देखने से इस मान्यता का समर्थन होता है। भगवान ऋषभदेव के पिता नाभिरायन बद्रीनाथ मन्दिर के पीछे वाले पर्वत पर तपस्या की थी। वहां उनके चरण विद्यमान है। भगीरथ ने कैलाश पर्वत पर जाकर शिवगुप्त नामक मुनि मे दीक्षा ली थी और उन्होंने गंगा-तट पर तपस्या की थी। इन्द्र ने क्षीरसागर के जल से भगीरथ मुनि के चरणों का अभिषेक किया था। उस चरणोदक का प्रवाह गंगा में जाकर मिल गया। तभी से गंगा नदी लोक म तीर्थ मानी जाने लगी। उन महामुनि भगीरथ ने गंगा तट पर जिस शिला पर खड़े होकर तपस्या की थी, वह शिला भगीरथ-शिला कहलाने लगी। वह अब भी विधमान है। भगीरथ की तपस्या का यह वर्णन जैन शास्त्रों में मिलता है। बद्रीनाथ मन्दिर की मूर्ति भगवान ऋषभदेव की है। इससे इस तथ्य पर प्रकाश पड़ता है कि पक्रवर्ती भरत ने जिन ७२ जिन-मन्दिरों का निर्माण कराया था, वह केवल कैलाश में नहीं, अपितु सारे हिमालय में विभिन्न स्थानों पर कराया था। 1. It may be mentioned that Linga is a Tibetan word for Land. The nor. thern most district of Bengal is called Darji-Ling, which means Thunder's land. S.K. Roy, Pre-historic India and Ancient Egypt., p.29 २. उसर पुराण ४१३८.१४१
SR No.090192
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy