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________________ ६८ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास कल्याण और आरोग्य व्याप्त था। इस प्रकार भगवान ने समस्त देशों में मानन्द और कल्याण की वर्षा करते हुए धर्म - बिहार किया। इस बिहार की बदौलत असंख्य प्राणियों ने अपना कल्याण किया । भगवान ने जिन देशों में बिहार किया, उनके नाम इस प्रकार हैं- काशी, भवन्ति, कुरु, कोशल, सुह्म, पुण्ड्र, चेदि, अंग, वंग, मगध, श्रन्ध्र, कलिंग, मद्र, पंचाल, मालव, दशार्ण, विदर्भ प्रादि । १० भगवान का अष्टापद पर निर्वाण भगवान ने सम्पूर्ण देश में एक हजार वर्ष मौर चौदह दिन कम एक लाख पूर्व वर्षों तक धर्म - बिहार किया। जब उनकी श्रायु के चौदह दिन शेष रह गये, तब वे श्रीशिखर और सिद्धशिखर के बीच में कैलाश पर्वत पर पहुंचे और पौष शुक्ला पूर्णमासी के दिन योगों का निरोध करने के लिए ध्यानारूढ़ हो गये । कैलाश में निर्वाण उसी दिन सम्राट् भरत ने स्वप्न में देखा कि महामेरु पर्वत लम्बा होते होते सिद्ध क्षेत्र तक जा पहुंचा है। युवराज प्रकीति ने स्वप्न देखा कि एक महौषषि वृक्ष लोगों के रोगों का नाश करके स्वर्ग को जा रहा है । गृहपति ने स्वप्न देखा कि एक कल्पवृक्ष लोगों को कामनायें पूरी करने के बाद स्वर्ग को जा रहा है। प्रधानमन्त्री को स्वप्न हुआ कि एक रत्नद्वीप लोगों को नाना प्रकार के रत्न देकर आकाश की ओर जाने के लिए तैयार है । जयकुमार के पुत्र अनन्तवीर्य ने देखा कि चन्द्रमा तीनों लोकों को प्रकाशित करके तारों सहित जा रहा है। सम्राज्ञी सुभद्रा ने स्वप्न में देखा कि यशस्वती और सुनन्दा के पास बैठकर इन्द्राणी शोकाकुल हो रही है। वाराणसी नरेश चित्रांगद ने स्वप्न देखा कि सूर्य पृथिवी को प्रकाशित करके आकाश की ओर उड़ा जा रहा है । इस प्रकार और भी अनेक लोगों ने इसी प्रकार के नाना स्वप्न देखे । प्रातःकाल होने पर सबने राजपुरोहित तथा निमित्त शास्त्र के ज्ञाता पुरुषों से अपने-अपने स्वप्न बता कर उनका फल पूछा। उन निमित्त ज्ञानियों ने विचार कर उत्तर दिया- भगवान ऋषभदे व सम्पूर्ण शेष कर्मों को नष्ट करके अनेक मुनियों के साथ मुक्त होनेवाले हैं। पुरोहित स्वप्नों का फल बता ही रहे थे, तभी मानन्द नामक एक व्यक्ति राज्य सभा में प्राया। उसने महाराज भरत को यथोचित नमस्कार करके भगवान का सम्पूर्ण वृत्तान्त सुनाया और कहा कि भगवान ने अपनी दिव्य ध्वनि का संकोच कर लिया है और सम्पूर्ण सभा हाथ जोड़कर मौन पूर्वक बैठी है । यह सुनते ही सम्राट् भरत सब लोगों के साथ अविलम्ब कैलाश पर्वत पर जा पहुंचे। उन्होंने जाकर भगवान के दर्शन किये, तीन प्रदक्षिणा दीं, उनकी स्तुति की और महामह नामक पूजा की। इस प्रकार चक्रवर्ती चौदह दिन तक भगवान की सेवा करते रहे । उस दिन माघ कृष्णा चतुर्दशी के सूर्योदय का शुभ मुहूर्त था । प्रभिजित नक्षत्र था। भगवान इस पुण्य बेला में पूर्व दिशा को श्रोर मुख करके पर्यकासन से विराजमान हो गये। उनके साथ के एक हजार मुनियों ते भी प्रात्म-विजय की अन्तिम तैयारी की। भगवान ने सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति नामक तृतीय शुक्ल ध्यान के द्वारा मन, aat, काय इन तीनों योगों का निरोध किया और फिर अन्तिम गुणस्थान में ठहरकर अ इ उ ऋ लृ इन ह्रस्व भक्षरों के उच्चारण में जितना काल लगता है, उतने काल में व्युपरतक्रियानिवृत्ति नामक चौथे शुक्ल ध्यान के द्वारा शेष प्रभातिया कर्मों का नाश कर दिया। वे सिद्धत्व पर्याय को प्राप्त हो गये। भ्रात्मा की मनन्त विभूति को प्रगट करने वाले ग्रात्मा के आठ गुण उनमें प्रगट हो गये - सम्यक्त्व, धनन्त ज्ञान, मनन्त दर्शन, प्रनन्त वीर्य अगुरुलघु
SR No.090192
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size15 MB
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