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________________ ५६ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास भगवान को केवल ज्ञान प्राप्त होते हो कुबेर के निर्देशन में देवों ने समवसरण की रचना की। बाहर रत्नचर्ण से निमित बहुरंगी धूलिसाल प्राकार था। उसमें चारों दिशाओं में स्वर्ण के खम्भों पर चार तोरण द्वार बनाये थे। उन द्वारों पर मत्स्य बने थे तथा रत्नमालायें लटकी हुई थीं। धूलिसाल के अन्दर समवसरण की रचना प्रवेश करने पर चारों दिशाओं में चार मानस्तम्भ बने थे। ये मानस्तम्भ एक जगती पर थे। उस जगती के चारों ओर तीन-तीन कोट थे और उनमें भी गोपुर द्वार बने हुए थे। उन कोटों के बीच में तीन कटनीदार एक-एक पीठिका बनी थी। इसी पीठिका पर ये मानस्तम्भ स्थित थे। इन.पर घण्टा, चमर, ध्वजाय फहरा रही थीं । मानस्तम्भों के मूल भाग में प्रहन्तों की स्वर्णमय प्रतिमायें विराजमान थीं। मानस्तंभ के शीपं पर तीन छत्र सुशोभित थे। इन्हें इन्द्रध्वज भी कहा जाता है । इन मानस्तम्भों को देखने मात्र से अभिमानी जनों का अभिमान गलित हो जाता है। इन मानस्तम्भों के निकट नन्दोत्तरा नाम की बावड़ियां बनी थीं। आगे जाने पर जल से भरी हुई परिखा बनी हुई थीं। लतावन थे। उनमें लता मण्डप बने थे। उनमें चन्द्रकान्त मर्माण की शिलाय थीं । इन्द्र यहाँ आकर इन पर विश्राम किया करते थे। कुछ आगे बढ़ने पर एक स्वर्णकोट मिलता था जो समयसरण भूमि को घेरे हुए था । उस कोट में चार विशाल गोपुर द्वार बने हुए थे। इन द्वारों में एक सौ आठ मंगल द्रव्य रक्खे थे। गोपुर द्वारों के भीतर जाने वाले मार्ग पर दो-दो नाट्यशालायें बनी थीं। मार्ग के दोनों ओर धूप घटों में सुगन्धित धूप का चूनां निकलता रहता था । कुछ दूर आगे अशोक, मप्तपर्ण, चम्पक और आम्र उद्यान बने थे । उनमें जाने के लिये वीथिकायें बनी थीं। __ अशोक उद्यान के मध्य में एक विशाल अशोक वृक्ष था। यह तीन कटनीदार एक पीठिका पर स्थित था। उसके निकट मंगल द्रव्य रकने थे 1 यह एक चैत्य वृक्ष था । इस पर ध्वजायें फहरा रही थीं। उसके शीर्ष पर तीन छत्र थे, जिनमें मातियों की झालरे लटक रही थी 1 वृक्ष के मूल भाग में प्रष्ट प्रातिहार्ययुक्त जिनेन्द्र देव की चार प्रतिमायें विराजमान थीं । इस प्रकार चैत्य वृक्ष अन्य बनों में भी थे। इन बनों के अन्त में बनवेदिका बनी हुई थीं। यहां जो बापिकाय हैं, उन में स्नान करने मात्र से एक.भब दिखाई पड़ता है तथा बापिका के जल में देखने से भावी सात भव दीखते हैं। वहाँ सिद्धार्थ वृक्ष, चैत्यवक्ष, कोट, वन वेदिका, स्तूप, तोरण सहित मानस्तम्भ और ध्वज-स्तम्भथे। इनकी ऊंचाई तीथंकरों के शरीर से बारह गुनी होती है। वहां जो वजाएं होती है, उनमें माला, वस्त्र, मयूर, कमल, हंस गरुण, सिंह, बैल, हाथी और चक्र के चिन्ह होते हैं। हर दिशा में प्रत्येक चिन्ह वाली व्यजामों की संख्या एक सौ पाठ होती है। वहाँ कल्प वृक्षों का भी वन था । उन कल्प वृक्षों के मध्य भाग में सिद्धार्थ वृक्ष होते हैं । इन पर सिद्ध भगवान की प्रतिमाय विराजमान होती हैं। जो महावोथियां बनी हुई थी, उनके मध्य में नौ-नौ स्तूप खड़े हुए थे। इन स्तुपों में अर्हन्तों और सिद्धों की प्रतिमायें विराजमान थीं । इन स्तूपों पर वन्दनमालायें लटकी हई थीं, छत्र लगे हुए थे, पताकाय फहरा रही थीं, मंगल द्रव्य रक्खे थे। एक-एक स्तूप के बीच में मकर के पाकार के सो तोरण होते हैं । इन स्तुपों की ऊचाई चंत्य वृक्षों के समान होती है। सर्व प्रथम लोक स्तूप होते हैं । ये नीचे वेत्रासन के समान, मध्य में झालर के समान, उसके ऊपर मृदंग के समान और अन्त में तालवृक्ष के समान लम्बी नालिका से युक्त होते हैं। इन स्तूपों में लोक की रचना बनी होती है । इन लोक स्तूपों से प्रागे मध्यलोक स्तूप होते हैं । इनके भीतर मध्य लोक की रचना होती है। इनसे आगे मन्दर स्तूप होते हैं, जिन पर चारों दिशामों में भगवान की प्रतिमा विराजमान होती हैं। इनके आगे कल्पवास स्तूप होते हैं, जिनमें कल्पवासियों की रचना बनी होती है। उनकमागे अवेयकों के प्राकार वाले वेयक स्तूप होते हैं। उनके आगे अनुदिश नामक नौ स्तूप होते हैं। मागे चलकर सर्वार्थ सिद्धि नामक स्तूप होते हैं। इनसे प्रागे भव्यकट स्तूप होते हैं। इन्हें अभव्य जीव नहीं देख सकते, देखने पर वे अन्धे हो जाते हैं । इनसे आगे प्रमोह स्तुप होते हैं। इन्हें देखकर लोग विभ्रम में पड़ जाते हैं और चिरकाल से प्रभ्यस्त गृहीत वस्तु को भी भूल जाते हैं। प्रागे चलकर प्रबोध स्तुप होते हैं। इन्हें देखकर लोग प्रबोध को प्राप्त होते हैं और साधु बनकर संसार से छुट जाते हैं।
SR No.090192
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size15 MB
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