SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 71
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास उस समय वहां पर इक्षु-रस से भरे हुये कलश रक्खे थे । श्रेयान्सकुमार ने राजा सोमप्रभ और रानी लक्ष्मीमती के साथ भगवान को उसी इक्षु रस का माहार दिया। इधर भगवान की अञ्जलि में इक्षु-रस की धारा पड़ रही थी, उधर भगवान के आहार के उपलक्ष्य में देव लोग रत्नों की वर्षा कर रहे थे । कुछ देव पुष्पवर्षा कर रहे थे । देव हर्ष से भेरी ताड़न कर रहे थे। शीतल सुगन्धित मन्द पवन बहने लगा, और देव लोग आकाश में 'वन्य यह दान, धन्य यह पात्र और धन्य यह दाता' इस प्रकार कह कर दान को अनुमोदना कर रहे थे। तीर्थङ्करों के प्रहार के समय ये पांच बातें अवस्य होती हैं, जिन्हें पंचाश्चर्य कहते हैं । I दोनों भाइयों के मन में हर्ष का मानो सागर ही उमड़ पड़ रहा था। आज त्रिलोक पूज्य तीर्थङ्कर प्रभु ने उनके घर पर पधार कर और आहार लेकर घर द्वार को पवित्र किया था । अनेक लोगों ने इस दान का अनुमोदन करके पुण्य लाभ किया। श्रहार करके भगवान वन में लौट गये। दोनों भाई भी कुछ दूर तक भगवान के साथ गये । किन्तु जब लौटे तो वे रह रह कर भगवान को ही देखते जाते थे । उनकी दृष्टि और चित्तवृत्ति भगवान की ओर ही लगी रही। भगवान के चरण जहां पड़े थे, उस स्थान की धूल को उठाकर वे बार बार माथे से लगाते थे । मन में भगवान की मूर्ति और गुणों का अनुस्मरण करते जाते थे । वे जब लोटे तो सारा आंगन प्रजा - जनों से संकुलित था। सब लोग उन दोनों भाइयों के ही पुण्य की सराहना कर रहे थे । ५६ राजकुमार श्री न्यास के कारण ही संसार में दान देने की प्रथा प्रचलित हुई। दान देने की विधि भी श्रन्यास ने ही सबसे पहले जानी । सम्राट् भरत को भी बड़ा ग्राश्चर्य हो रहा था कि धन्यास कुमार ने भगवान के मन का अभिप्राय कैसे जान लिया । विशेष कर उस दशा में, जब कि भगवान मौन धारण करके विहार कर रहे थे । देवों ने आकर कुमार श्रन्याम की पूजा की। महाराज भरत भी हस्तिनापुर पहुँचे। वे अपने कुतूहल को रोक नहीं पाये । उन्होंने श्रन्यास से पूछा - 'हे कुरुवंश शिरोमणि! मुझे यह जानने का कुतुहल हो रहा है कि तुमने मौनधारी भगवान का अभिप्राय कैसे जान लिया ? दान की विधि को अब तक कोई नहीं जानता था, उसे तुमने कैसे जान लिया ? तुमने दान तीर्थ की प्रवृत्ति की है, तुम धन्य हो । हमारे लिए तुम भगवान के समान ही पूज्य हो । तुम महापुण्यवान हो ।' सम्राट् के सराहना भरे शब्दों को सुन कर श्रंन्यास कुमार प्रसन्न होता हुआ बोला- 'जन मैंने भगवान का रूप देखा तो मेरे मन में अपार हर्ष हुआ। तभी मुझे जाति स्मरण हो गया जिससे मैंने भगवान का अभिप्राय जान लिया । जब भगवान विदेह क्षेत्र की पुण्डरी किणी नगरी में वज्रजंव की पर्याय में थे, तब मैं इनकी श्रीमती नामक स्त्री था। उस पर्याय में बच्चजंघ सहित मैंने दो चारण ऋद्धिवारी मुनियों को आहार दान दिया था। यह सब मुझे स्मरण हो माया था। इसलिए भगवान को मैंने ग्राहार-दान दिया । इसके पश्चात् श्रन्यास कुमार ने भगवान के पिछले भवों का वर्णन किया। और दान देने की विधि विस्तारपूर्वक बताई । तब महाराज भरत ने दोनों भाइयों के प्रति बड़ा अनुराग प्रगट किया श्रीर उनका खूब सम्मान किया । ८. भगवान को कैवल्य की प्राप्ति तीर्थंकर भगवान जिनकल्पी होते हैं । तीर्थङ्करों और साधारण मुनियों में एक मौलिक अन्तर यह भी है कि साधारण मुनियों को प्रारम्भिक अवस्था में स्थविरकल्पी होना पड़ता है और वे जिनकल्पी होने के लिए प्रयत्न करते रहते हैं । मुनि-पद के ये दो भेद हैं- स्थविरकल्प और जिनकल्प । त्रिशल्य रहित होकर पंच महाव्रतों और उनकी
SR No.090192
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy