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________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास ४६ अभिषेक करके पुण्यार्जन किया। महाराज नाभिराज ने भी अपने त्रिलोक पूज्य पुत्र का अभिषेक किया। इस प्रानन्द अवसर पर नगरवासी भी पीछे नहीं रहे। किसी ने कमल पत्र का दौना बनाकर और किसी ने मिट्टी का घड़ा लाकर सरयू नदी के जल से भगवान के चरणों का अभिषेक किया । भगवान के इस जलाभिषेक का क्रम इस प्रकार था - सबसे प्रथम तीर्थजल से अभिषेक किया गया। फिर कवाय जल, सुगन्ध मिश्रित जल से अभिषेक किया। फिर भगवान ने गरम जल के कुण्ड में घुस कर स्नान किया । स्नान के अनन्तर भगवान ने माला, वस्त्र और आभूषण उतार दिये और देवोपनीत माला, वस्त्र और आभूषण धारण किये । तब महाराज नाभिराज ने 'मुकुटबद्ध राजाओं के अधिपति भगवान ऋषभदेव ही हैं" यह कहकर अपने मस्तक का मुकुट उतार कर अपने हाथ से भगवान के मस्तक पर धारण किया। उनके मस्तक पर पट्टबन्ध बांधा । उस समय भगवान दिव्य अलंकार धारण किये हुए थे । वे कानों में कुण्डल, कण्ठ में हार यष्टि, कटि में करधनी, भुजायों में कड़े, बाजूबन्द और ग्रनन्त, चरणों में नीलमणि के नूपुर धौर कन्धे पर यज्ञोपवीत धारण किये हुए थे। उनकी रूप छवि प्रद्भुत थी । इन्द्र ने भक्ति विह्वल होकर अवसर के अनुकूल आनन्द नाटक किया । फिर देव और मनुष्य अपने-अपने स्थान को चले गये । राज्य संस्थापना भगवान ने दण्ड-व्यवस्था स्थापित कर दी थी । दण्ड देने का अधिकार केवल राजा को है । अतः उन्होंने राजाओं की नियुक्ति करने से पहले राजायों के लिए नियम बनाये। उन्होंने कहा – जिस प्रकार दूध देने वाली गाय से बिना उसे पीड़ा पहुंचाये दूध दुहा जाता है और गाय की सुरक्षा के लिए उसे उचित थाहार, पान दिया जाता है। ऐसा करने से गाय भी सुखी रहती है और दूध दुहने वाले की आजीविका भी चलती है। इसी प्रकार राजा को प्रजा से धन वसूल करना चाहिए। राजा को प्रजा से अधिक पीड़ा न देने वाले कर वसूल करने चाहिए। इससे प्रजा भी दुखी नहीं होती और राजा उस धन से प्रजा की सुख-सुविधा और सुरक्षा के उपाय कर सकता है। इसलिए भगवान ने कुछ योग्य पुरुषों को दण्डधर राजा नियुक्त किया। उन्होंने हरि, कम्पन, काश्यप और सोमप्रभ नामक योग्य क्षत्रियों को बुलाकर उनका यथोचित श्रादर सत्कार किया और उनका राज्याभिषेक करके उन्हें महामाण्डलिक राजा बनाया। इनके प्राधीन चार हजार राजा नियुक्त किये। कच्छ महाकच्छ आदि को अधिराज का पद दिया । 1 वंश -स्थापन भगवान ने जिनको महामाण्डलिक राजा बनाया था, उनमें हरि और काश्यप भगवान के पुत्र थे । सोमप्रभ बाहुबली के पुत्र थे। अकम्पन का परिचय कहीं नहीं मिलता है। इन तेजस्वी राजानों को राज्य भी दिये और इनसे वंशों का प्रचलन भी किया। हरि का नाम हरिकान्त रक्खा और उससे हरिवंश चला। अकम्पन का नाम श्रीधर रक्खा और उसको नाथवंश का संस्थाएक बनाया। काश्यप को मघवा नाम दिया और उसे उग्रवंश का संस्थापक घोषित किया। सोमप्रभ को कुरुराज की संज्ञा दी और उससे दो वंश चले - कुरुवंश और सोमवंश । इस प्रकार भगवान ने पूर्णतः कर्मभूमि की रचना करके कुलकर-व्यवस्था समाप्त की और कर्म-व्यवस्था का प्रचलन किया और वे दीर्घ काल तक सांसारिक प्रभ्युदय का मार्ग प्रशस्त करते रहे । सारे संसार में ऋषभदेव का प्रभाव व्याप्त हो गया। प्रजाजन उनके अलौकिक व्यक्तित्व से अभिभूत थे और प्रभावित होकर उनके व्यक्तित्व के बहुरंगी रूपों और उनके विविध लोकोदयी कार्यों के कारण उनकी विविध नामों से संस्तुति करने लगे। उस काल में उनके विविध नाम प्रचलित हो गये, जैसे इक्ष्वाकु, गौतम, काश्यप, पुरु, मनु, कुलधर, विधाता, विश्वकर्मा, प्रजापति, स्रष्टा आदि । भगवान का कुमार काल बीस लाख पूर्व का था और राज्य काल तिरेसठ लाख पूर्व का था । इस प्रकार उनकी श्रायु के तिरासी लाख पूर्व व्यतीत हो गये । भगवान के विविध नाम और गृहस्थ जीवन का काल
SR No.090192
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size15 MB
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