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________________ ४२ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास लगे थे। अब शीत, पातप, वर्षा और महाशय प्रादि की भी बाधायें सताने लगी थीं। ऐसे संकट के समय सब लोग मिलकर अपने कुलकर नाभिराज के पास गये और उन्हें अपनी कष्ट-गाथा सूनाकर जीवनोपाय पूछा । नाभिराज ने प्रजा को अपने ज्ञानी पुत्र ऋषभदेव के पास भेज दिया। सारी प्रजा ऋषभदेव के पास पहुंची और उन्हें अपनी सारी कठिनाइयाँ बताई और प्रार्थना को-हे देव ! हम भूख प्यास से व्याकुल हैं। हम लोगों की आजीविका निरुपद्रव हो सके, पाप कपा करके हमें ऐसा उपाय बताइये। प्रजा के ऐसे दीन बचन सुनकर भगवान दयाई हो गये। उन्होंने मन में विचार किया-अब कल्पवृक्ष नष्ट हो गये है, भोगभूमि समाप्त हो गई है, कर्म भूमि प्रगट हुई है। वर्तमान में पूर्व और पश्चिम विदेह क्षेत्र में जो व्यवस्था प्रचलित है, यहाँ पर भी उसी व्यवस्था का प्रचलन श्रेयस्कर होगा और उसी व्यवस्था से यहाँ के मनुष्यों को प्राजीविका चल सकती है। ऐसा विचार कर भगवान ने प्रजा को आश्वासन दिया। उन्हें समझाया कि 'प्रब भोग-भूमि समाप्त हो गई है, कर्म-भूमि प्रारम्भ हो गई है । अतः अब तुम लोगों को प्राजीविका के लिए कर्म करना पड़ेगा, तभी तुम लोगों का निर्वाह हो सकेगा।' दिगम्बर परम्परा के 'आदिपुराण' आदि ग्रन्थों में संक्षेप में बताया है कि भगवान ने प्रजा को प्रसि, मसि, कृषि, विद्या, बाणिज्य और शिल्प इन छह कर्मों का उपदेश दिया । तलवार आदि शस्त्र धारण कर सेवा करना असिकर्म कहलाता है। लिख पढ़ कर आजीविका करना मसि कर्म कहलाता है। जमीन को जोतना बोना कृषि कर्म कहलाता है ! विभिन्न विभागों द्वापानीषिका करना विद्या कर्म कहलाता है। व्यापार करना वाणिज्य है। और हस्त को कुशलता से जीविका करना शिल्प-कर्म कहलाता है। किन्तु श्वेताम्बर परम्परा के 'मावश्यक चणि आदि ग्रन्थों में प्राजीविका के तात्कालिक उपाय का विस्तृत विवरण मिलता है जो भगवान ने उस समय प्रजा को बताया था। उन्होंने बिना बोये हुए धान्य को हाथ से मसल कर खाने का परामर्ष दिया। लोगों ने वैसे ही किया। किन्तु उससे अपच होने लगा । तब भगवान ने उन्हें जल में भिगोकर मुट्ठी तथा बगल में रख कर गर्म करके खाने की सलाह दी। किन्तु इससे भी अपच हो गया। तब भगवान ने लकड़ियों को रगड़कर अग्नि उत्पन्न की पौर अन्न को पकाने की विधि बताई। एक दिन संयोगवश बांसों आदि की स्वतः रगड़ से जंगल में आग लग गई। हवा के संयोग से वह भाग ' बढ़ने लगी। तब लोग ऋपभदेव के पास प्राये और उनसे इस नये संकट की बात बताई। सुनकर भगवान ने बताया कि आसपास की घास साफ कर दो तो आग नहीं बढ़ेगी। लोगों ने घास, पत्ते साफ कर दिये । इससे माग का बढ़ना रुक गया। भगवान ने कहा कि इस आग में अन्न को पकाकर खाया जाता है। लोगों ने भाग में अन्न डाल दिया। वह जल कर राख हो गया । वे पुन: भगवान के पास पाये और बोले-माग हमारे अन्न को खा गई, हम क्या खावें । तब भगवान ने आग के ऊपर मिट्टी के पात्र में अन्न रखकर पकाने की विधि बताई। - इसके पश्चात् भगवान ने धान्य बोना, पानी देना, नराना और पकने पर काटकर अन्न निकालना, पीसना, गुथना और पकाना यह सारी विधि सिखाई। इस प्रकार वन्य जीवन से नागरिक सभ्यता तक पाने के लिए भगवान मे कृषि कर्म को प्राथमिक उपाय बताया। इसका अर्थ यह है कि आदि मानव ने नागरिक जीवन में दीक्षा लेने के लिए सर्व प्रथम कृषि को अपने जीवनोपाय के रूप में स्वीकार किया और प्राज सभ्यता का कितना ही विकास क्यों न हो गया हो, पाज भी कृषि ही उदर-पूर्ति का एक मात्र साधन है। ऋषभदेव ने प्रजा के जीवन-धारण की सर्व प्रमुख समस्या का समाधान किया था, इसलिए कृतज्ञ प्रजा उन्हें प्रजापति कहने लगी। इसी सम्बन्ध में प्राचार्य समन्तभद्र ने स्वयंभूस्तोत्र में कहा है प्रजापतिर्यः प्रथम जिजीविषुः शशास कृष्यादिषु कर्मसु प्रजाः। भगवान ने उक्त छह कर्मों के आधार पर तीन वर्गों की स्थापना की। इन तीन वर्षों में क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र थे । उन्होंने इन वर्गों का विभाजन कर्म और व्यवसाय के आधार पर किया था, जिससे सब मनुष्यों को अपनी अपनी योग्यतानुसार काम प्रोर व्यवसाय मिल सके और सभी उन कर्मों के माधार पर प्रपती वर्ण व्यवस्था जीविका उपार्जन कर सकें। अपने वर्ण को निश्चित भाजीविका को छोड़कर कोई दूसरी
SR No.090192
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size15 MB
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