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________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास प्रकार हैं १.भरत २. बाहवली ३. शंख ४. विश्वकर्मा ५. विमल ६.सुभक्षण ७. अमल . चित्रांग ह. ख्याति कीर्ति १०. वरदत्त ११. सागर १२. यशोधर १३, अमर १४. रथवर १५. कामदेव १६. व १७. बच्छ १८. नन्द १६. सुर २०. सुनन्द २१. कुरु २२. ग्रंग २३. वंग २४. कोशल २५. वीर २६. कलिग २७. मागध २८ विदेह २६. संगम ३०. दशाण ३१. गम्भीर ३२. वसुधर्मा ३३. सुवर्मा ३४. राष्ट्र ३५. सुराष्ट्र ३६. बुद्धिकर ३७. विविधकर ३८. सुयशा ३६. यशस्कीति ४०. यशस्कर ४१. कीर्तिकर ४२. सूरण ४३. ब्रह्मसेन ४४, विक्रान्त ४५. नरोत्तम ४६. पूरुषोत्तम ४७. चन्द्रसेन ४०. महासेन ४६. नभसेन ५०. भानु ५१. सुकान्त ५२. पुष्पयुत ५३. श्रीधर ५४. दुर्धर्ष ५५. सुसुमार ५.६. दुर्जय ५७. अजेयमान ५८. सुधर्मा ५६. धर्मसेन ६०. प्रानन्दन ६१. प्रानन्द ६२. नन्द ६३. अपराजित ६४. विश्वसेन ६५. हरिषेण ६६. जय ६७. विजय ६८. विजयन्त ६६. प्रभाकर ७०. अरिदमनः ७१ मान ७२. महाबाहु ७३. दीर्घबाहु ७४. मेघ ७५. सुघोष ७६. विश्व ७७. वराह ७८. सुसेन ७६. सेनापति ८०. कपिल ८१. शैलविचारी ८२. अरिजय ८३. कंजरवल ४. जयदेव ८५. नागदत्त ८६. काश्यप ८. बल ५८. धीर ८६. शुभमतिः १०. सुमति ६१. पद्मचार: ९२. सिंह ८३. सुजाति , संजय नाम १६. नरदेव ६७. चित्तहर . मुरवर ६६. दृढ़रथ १००. प्रभंजन। __ श्रीमद्भागवत में भी यह स्वीकार किया है कि ऋषभदेव के सौ पुत्र थे। उनमें भरत सबसे बड़े थे। उनसे छोटे कुशावर्त, इलावत, ब्रह्मावर्त, मलय, केतु, भद्रसेन, इन्द्रस्पृक्, विदर्भ और कोकट ये नौ राजकुमार शेष नब्वे भाइयों में बड़े एवं श्रेष्ठ थे । जनसे छोटे कवि, हरि, अन्तरिक्ष, प्रबुद्ध, पिप्पलायन, आविर्होत्र, द्र मिल, चमस और करभाजन ये नौ राजकुमार बड़े भगवद्भक्त थे। इस प्रकार श्रीमद्भागवत में केवल १६ पुत्रों के ही नाम दिये गये हैं। एक दिन भगवान ऋषभदेव सिंहासन पर सुखासन से बैठे हुए थे। वे अपने पुत्र-पुत्रियों को कला और विनय का शिक्षण देने के बारे में विचार कर रहे थे। तभी बाह्मी और सुन्दरी नामक लिपि और अंक विद्या उनकी प्रत्रियां मांगलिक वेष-भूषा धारण कर उनके निकट पाई। वे दोनों ऐसी लगती थीं का आविष्कार मानो लक्ष्मी और सरस्वती ही अवतरित हुई हों। उन दोनों ने भगवान के निकट जाकर नियम के साथ उन्हें प्रणाम किया। भगवान ने प्रेमपूर्वक दोनों पुत्रियों को अपनी गोद में बैठाया, उन पर हाथ फेरा, उनका मस्तक संघा। फिर कुछ देर तक उनके साथ दिनोद करते रहे। पश्चात वे बोले कि तुम दोनों का यह सुन्दर शरीर, अवस्था और अनुपम शील यदि विद्या से विभूषित किया जाय तो तुम्हारा यह जन्म सफल हो सकता है । यह कहकर उन्होंने दोनों को आशीर्वाद दिया और स्वर्ण के पटे या भार स्वर्ण के पट्टे पर श्रुत देवता का पूजन कर स्थापन किया। फिर 'सिद्धं नमः' कहकर दायें हाथ से ब्राह्मी को लिपि विद्या अर्थात् वर्णमाला लिखना सिखाया और बायें हाथ से सुन्दरी को अंक विद्या अर्थात संख्या लिखना सिखाया। इस प्रकार इस युग में भगवान ने अपनी पुत्रियों के माध्यम से सर्व प्रथम वाङमय का उपदेश दिया। केवल उपदेश ही नहीं दिया, भगवान ने वाडःमय के तीनों अंगों-व्याकरण शास्त्र, छन्द शास्त्र और अलंकार शास्त्र के सम्बन्ध में शास्त्र-रचना भी की। दोनों पुत्रियां भगवान से वाङमय का अध्ययन करके महान् विदुषी और ज्ञानवती बन गई। इस प्रकार इस काल में लिपि विद्या और अंक विद्या के प्राद्य आविष्कर्ता भगवान ऋषभदेव थे। इन विद्याओं का सर्वप्रथम शिक्षण प्राली और सुन्दरी के रूप में नारी जाति को प्राप्त हुआ। साह्मी पुत्री ने जिस लिपि का अध्ययन किया था, पश्चादवर्ती काल में वह लिपि ब्राह्मी लिपि कहलाने लगी। माज भी विश्व में ब्राहगी लिपि प्राचीनतम मानी जाती है। एशिया महाद्वीप की लिपियों में प्राय: जो समानता दिखाई पड़ती है, उसका कारण यही है कि वे सब ब्राह्मी लिपि से निकली हैं। १. श्रीमद्भागवत ५।४।-१३ ।
SR No.090192
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size15 MB
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