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________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास ४. भगवान गृहस्थाश्रम में ऋषभदेव का शैशव काल बोता और उन्होंने यौवन को देहली पर पग रखा। वे जन्म से तीन ज्ञान के धारी थे । उस समय तक लिपि और अंक विद्या का प्रचलन नहीं था । अतः विद्यामों का भगवान का विवाह प्रचार-प्रसार नहीं हो पाया था । इसलिए किशोर ऋषभदेव की शिक्षा का प्रश्न ही नहीं था । फिर तीर्थकर तो जगत के गुरु होते हैं, तीर्थंकर का गुरु कोई नहीं होता। वे जन्म से ही प्रतिवृद्ध होते हैं। पिछले जन्मों में सतत साधना द्वारा ज्ञान का जो भण्डार संचित कर लेते हैं, वह सुरक्षित रूप में उन्हें जन्म से ही प्राप्त रहता है। वे संसार की घटनाओं से नये-नये 'अनुभव संजोते और उस पर मननचिन्तन करते हैं । इसलिए वे लोक की सम्पूर्ण विद्याओं के स्वामी होते हैं । ऋषभदेव सरस्वती के स्वामी थे । उन्हें जन्म से ही सम्पूर्ण शास्त्रों का ज्ञान था। वे समस्त कलाओं के ज्ञाता थे। ज्यों-ज्यों उनका शरीर बढ़ रहा था, वैसे ही उनके गुण भी यढ़ रहे थे । अब भगवान की आयु विवाह योग्य हो गई। महाराज नाभिराज ने एक दिन अनुकूल अवसर देखकर अपने पुत्र से कहा- वत्स ! प्राप जगद् गुरु हैं, संसार का कल्याण करने के लिए ही आपका अवतार हुआ है। किन्तु पिता के नाते मेरी हार्दिक इच्छा है कि श्राप विवाह करके गृहस्थाश्रम अंगीकार करें। पिता के प्रिय वचन सुनकर भगवान ने स्वीकृति सूचक 14 'कहा। पुत्र की स्वीकृति पाकर पिता अत्यन्त प्रसन्न हुए। उन्होंने इन्द्र के परामर्श से सुशील, शुभलक्षणों वाली, सती मौर सुन्दर दो कन्याओं की याचना को । ये दोनों कन्यायें कच्छ, महाकच्छ की बहनें थीं। उनका नाम यशस्वती" और सुनन्दा था। नाभिराज ने उन्हीं कन्याथों के साथ धूमधाम से ऋषभदेव का विवाह कर दिया। भगवान के विवाह से न केवल मनुष्य लोक में ही आनन्द छा गया, बल्कि देवलोक में भी भगवान के विवाह के उपलक्ष्य में नाना प्रकार के उत्सव हुए। माता मरुदेवी और पिता नाभिराज दोनों पुत्र बमों को देखकर अत्यन्त श्रानन्दित हुए । दोनों देवियों के साथ भगवान ऐसे लगते थे ३८ मानो वे कीर्ति और लक्ष्मी से ही सुशोभित हों। उन देवियों का रूप, यौवन, कान्ति और सौन्दर्य अनुपम था । एक दिन महादेवी यशस्वती महलों में सो रही थीं । उन्होंने रात्रि के अन्तिम प्रहर में स्वप्न देखा । स्वप्न में ग्रसी हुई पृथ्वी, सुमेरु पर्वत, चन्द्र, सूर्य, जल से परिपूर्ण सरोवर जिसमें हंस तैर रहे थे और चंचल लहरों वाला समुद्र देखा । स्वप्न देखने के बाद बन्दी जनों के मंगल पाठ को सुनकर वे जाग गई। और शैय्या त्याग कर प्रातःकाल का मंगल स्नान कर देखे हुए स्वप्नों का फल जानने के लिए अपने पति ऋषभदेव के पास पहुंची। और भगवान के पास सिंहासन पर बैठ गई। फिर उन्होंने रात्रि में देखे हुए स्वप्न सुनाकर उनसे फल की जिज्ञासा प्रगट की। भगवान ने अवधिज्ञान से विचार कर कहा - हे देवि ! स्वप्न में तूने सुमेरु पर्वत देखा है, उससे प्रगट होता है कि तेरे चक्रवर्ती पुत्र उत्पन्न होगा । सूर्य उसके प्रताप और चन्द्र उसकी कान्ति को सूचित करता है । सरोवर और हंस देखने से तेरा पुत्रं प्रनेक शुभ लक्षणों से युक्त होगा और अपने विशाल वक्षस्थल पर कमलवासिनो लक्ष्मी को धारण करेगा । ग्रसी हुई पृथ्वी देखने से वह समुद्र पर्यन्त पृथ्वी का पालन करेगा। समुद्र देखने का फल यह है कि वह वरम शरीरी होगा। और तेरे सौ पुत्रों में ज्येष्ठ पुत्र होगा ।' स्वप्नों का फल सुनकर महादेवी यशस्वती को पार हर्ष हुआ । पुत्र-पुत्रियों का जन्म महादेवी यशस्वती के गर्भ में जो जीव काया था, वह अपने पूर्व जन्मों में व्याघ्र, प्रतिगृद्ध, देव, सुबाह श्रौर, सर्वार्थसिद्धि में प्रहमिन्द्र हुआ था । वह अहमिन्द्र हो महादेवो के गर्भ में अवतरित हुआ था। गर्भस्थ वह जीव महा प्रतापी चक्रेश्वर बनने वाला था। यही कारण था कि महादेवी यशस्वती अपने ऊपर श्राकाश में चलते हुए सूर्य १. इनका अपर नाम नन्दा भी था।
SR No.090192
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size15 MB
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