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________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास हो उठी थी। अपने इस ताण्डव नृत्य के द्वारा इन्द्र ताण्डव नृत्य का प्राद्य प्रस्तोता, सूत्रधार और जनक माना गया है। - इस नत्य के पश्चात् इन्द्र ने भगवान के दश जन्मों या अवतारों का नाटक किया । सर्व प्रथम इन्द्र ने भगवान के उस जन्म का नाटक दिखाया, जिसमें वे महाबल विद्याधर थे। इसके बाद क्रमशः ललितांग देव, वध जंघ, भोगभूमिज आर्य, श्रीधरदेव, सूविधि नरेश, अच्युतेन्द्र, बचनाभि चक्रवर्ती, सर्वार्थ सिद्धि के महमिन्द्र और नाभिपुत्र वृषभदेव का नाटक किया। इस प्रकार मद यानन्द नाटक समाप्त हुमा। इन्द्र ने भगवान का एक नाम पुरुदेव रक्खा था । किन्तु उनका मुख्य नाम वृषभदेव रक्खा। इन्द्र ने . भगवान का यह नाम क्यों रक्खा इस बारे में भाचार्यों ने कई प्रकार की कैफियत दी हैं। भगवान का गर्भावतरण के समय माता मरदेवी ने वृषभ देखा था, इसलिये भगवान का नाम वृषभदेष नामकरण रक्खा । एक हेतु यह दिया गया है कि भगवान अगत में श्रेष्ठ हैं, इसलिये उनका नाम षभदेव रक्खा। वृषभ का अर्थ है श्रेष्ठ । तीसरा हेतु यह दिया है कि वृष श्रेष्ठ धर्म को कहते हैं। भगवान उस श्रेष्ठ धर्म से शोभायमान होरहे थे, इसलिये इन्द्र ने उन्हें वृषभ स्वामी कहा । इन सभी मतों से भिन्न एक मत यह है कि वे जिनेन्द्र प्रभु इन्द्र वारा की गई पूजा के कारण प्रधानता को प्राप्त हए थे, इसलिये माता-पिता ने ही उनका नाम ऋषभ रक्खा। नामकरण के पश्चात् इन्द्र और देव अपने-अपने स्थान को चले गये। ३.बाल्य-काल इन्द्र ने बाल भगवान के लालन पालन और सेवा-सुश्रूषा के लिये अलग-अलग देवियाँ नियुक्त कर दी। इन्द्र ने भगवान के हाथ के अंगूठे में अमृत स्थापित कर दिया था । वे अमृत चूसते हुए शुक्ल भगवान का विध्य पक्ष के चन्द्रमा की भांति बढ़ने लगे। उनका कोमल विस्तर, आसन, वस्त्र, आभूषण, लालन पालन अनुलेपन, भोजन, वाहन तथा यान सभी वस्तुएं दिव्य थीं। कुवेर ऋतु के अनुकूल सभी वस्तुएं भेजता था । नाभिराज और मरुदेवी बाल भगवान को देख देखकर हर्षित होते थे। भगवान के होठों पर सदा मंद स्मित बिखरा रहता था, जिससे प्रतीत होता कि उन्हें संसार के भोगों की कोई कामना शेष नहीं है, वे इनसे परितृप्त हो चुके हैं । किन्तु प्रकृति-धर्म को तो निभाना ही है, इसलिए वे इस पर सदा हंसते रहते हैं । जो जिन बालक जन्म से मतिज्ञान, श्रुतशनि और अवधिज्ञान का धारक है, उसे प्रबोध बालकों के समान चेष्टा करनी पड़े, इससे अधिक परिहास की बात क्या हो सकती है ! बालक ऋषभदेव न केवल अपने माता-पिता के ही, अपितु जन-जन के प्रिय थे । अनेक स्त्री पुष तो केवल उनकी रूप-सुधा का पान करने पौर देखने के लिये ही पाते थे। उनकी प्रत्येक क्रीड़ा मन को भगवान की प्राकर्षित करने वाली थी। यदि शिशु ऋषभदेव जरा सा मुस्करा भी देते थे तो माता बाल-क्रीडाय मरुदेवी निहाल हो जाती थी। भट्टारकसानभूषण ने शिशु ऋषभदेव की बाल बड़ा स्वाभाविक और मार्मिक वर्णन किया है। बालक ऋषभ पालने में पड़ा हुआ है। किन्तु बीच बीच में कभी अांख खोलकर देखता है, कभी रो उठता है और कभी अपने नन्हें हाथों से हार को मोड़-तोड़ देता है
SR No.090192
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size15 MB
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