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________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास नौ माह पूर्ण होने पर चैत्र कृष्णा नौमी के दिन सूर्योदय के समय उत्तराषाढ़ नक्षत्र में और ब्रह्म नामक महायोग में पुत्र रत्न उत्पन्न हुआ । उस समय प्रकृति में अत्यन्त उल्लास भर गया । श्राकाश स्वच्छ था, प्रकृति शान्त थी, शीतल मंद सुगन्धित पवन बह रही थी । वृक्ष फूल बरसा रहे थे । देवों के दुन्दुभि बाजे स्वयं बज रहे थे। समुद्र, पृथ्वी, श्राकाश मानो हर्ष से थिरक रहे थे । भगवान के जन्म से तीनों लोकों में क्षण भर को उद्योत और सुख का अनुभव हुआ । जिनेन्द्रदेव का जातुकर्म विजया, वैजयन्ती, जयन्ती, अपराजिता, रुचका, रुचकोज्वला, रुचकाभा और रुचकप्रभा नामक दिक्कुमारियों ने किया। ये दिवकुमारियाँ जात कर्म में अत्यन्त निष्णात हैं । तीर्थंकरों का जा कर्म ये ही देवियाँ करती हैं । भगवान के जन्म के प्रभाव से इन्द्रों के मुकुट चंचल हो गये, आसन कम्पायमान हो गये । भवनवासी देवों के भवनों में शस्त्रों का शब्द, व्यन्तरों के लोक में भेरी का शब्द, ज्योतिष्क देवों के विमानों में सिहों के शब्द और कल्पवासी देवों के विमानों में घण्टाओं के शब्द होने लगे । सौधर्म स्वर्ग के इन्द्र ने अवधिज्ञान से जान लिया कि भरत क्षेत्र में प्रथम तीर्थंकर का जन्म हुआ है। वह अपने सिंहासन से उतर कर सात डग आगे बढ़ा। उसने उच्च स्वर से भगवान का जय घोष किया और दोनों हाथ मस्तक से लगा कर भगवान को प्रणाम किया। फिर सेनापति को आज्ञा दी 'भरत क्षेत्र में प्रथम तीर्थंकर का जन्म हुग्रा है । सब देवों को सूचना करवादो कि सबको भरतक्षेत्र चलना है।' सूचना मिलते ही समस्त देव चल पड़े। ग्रच्युत स्वर्ग तक के इन्द्रों ने भी इसी प्रकार अपने अपने लोक में प्रदेश प्रचारित किये और उन स्वर्गो के भी देव चल दिये। इसी प्रकार भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिष्क देव भी चल दिये। ३४ भगवान का जन्म महोत्सव उस समय समस्त श्राकाश हाथी, घोड़ा, रथ, पैदल सैनिक, बैल, गन्धर्व और नर्तकी इन सात प्रकार की देव सेनाओं से व्याप्त हो गया । सौधर्मेन्द्र एरावत हाथी पर आरूढ़ था । चारों निकाय के देव भी विविध बाहनों पर प्रारू हो रहे थे : में दरों ओर देवों के श्वेत छत्र, ध्वजा और चमर दिखाई पड़ रहे थे । भेरी, दुन्दुभि और शंखों के शब्दों से श्राकाश व्याप्त था । गीत था। सभी देव अयोध्या नगरी में पहुचे। सभी देव वहां नगर का नाम 'साकेत' प्रसिद्ध हो गया । और नृत्य से वातावरण में अद्भुत उल्लास भर रहा एक साथ प्रथम बार पहुंचे, इसलिए उस समय से उस सर्व प्रथम देवों ने नगर की तीन प्रदक्षिणा दी। तत्पश्चात् सोधर्मेन्द्र नाभिराज के प्रासाद में पहुंचा और इन्द्राणी को जिनेन्द्र प्रभु को लाने की आज्ञा दी । इन्द्राणी प्रसूति गृह में गई। उसने प्रभु को और माता को नमस्कार किया । फिर अपनी देव माया से माता को सुख निद्रा में सुलाकर और उनके बगल में मायामय बालक लिटाकर प्रभु को गोद में उठा लिया और लाकर इन्द्र को सौंप दिया इन्द्र ने भगवान को गोद में ले लिया। बाल प्रभु के सुख-स्पर्श से उसका समस्त शरीर हर्ष से रोमांचित होगया । वह प्रभु के त्रिभुवन मोहन रूप को निहारने लगा। किन्तु उसे तृप्ति नहीं हुई । तब उसने हजार नेत्र बनाकर प्रभु के उस अनिंद्य रूप को देखा । फिर भी वह तृप्त नहीं हुआ। तो उसने भगवान की स्तुति करना प्रारम्भ किया । 1 तत्पश्चात् वह भगवान को गोद में लेकर ऐरावत हाथी पर आरूढ़ हुआ । ऐशान इन्द्र ने भगवान के - ऊपर श्वेत छत्र तान लिया । सानत्कुमार और माहेन्द्र स्वर्ग के इन्द्र दोनों पावों में खड़े होकर चमर ढोलने लगे । इन्द्र देव समूह के साथ भगवान को सुमेरु पर्वत के शिखर पर ले गया । सर्व प्रथम सबने सुमेरु पर्वत की प्रदक्षिणा दी। फिर पाण्डुक शिला पर स्थित सिंहासन पर जिन बालक को विराजमान किया। समस्त देव हर्ष में मरकर गीत-नृत्य करने लगे। उस समय तत, वितत, घन और सुषिर चारों प्रकार के बाजे बज रहे थे । अप्सरायें -नृत्य करने लगीं, देवांगनाओं ने अपने हाथों में अष्ट मंगल द्रव्य ले लिये। देव लोग क्षीरसागर से स्वर्ण कलश भरकर क्रम से एक से दूसरे तक पहुंचाने लगे । सर्व प्रथम सौधर्म और ऐशान स्वर्ग के इन्द्रों ने भगवान का अभिषेक किया। सभी इन्द्र और देव भगवान का जय जयकार कर रहे थे। सौधर्म इन्द्र को एक कलश द्वारा अभिषेक करने
SR No.090192
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size15 MB
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