SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 45
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास यग की मांग थी । नाभिराज ने बड़े बिवेक और धैर्य के साथ उन प्रश्नों का समाधान दिया। वे स्वयं त्राणसह बन गये। इसीलिये उन्हें क्षत्रिय कहा गया। अत्रिय ही नहीं, विश्व भर के क्षत्रियां में श्रेष्ठ कहा गया। प्राचार्य जिनसेन ने उन्हें 'विश्वक्षत्रगणाग्रणो कहा है। इसीलिए आगे चलकर क्षत्रिय गब्द 'नाभि' अर्थ में रूढ़ हो गया। अमरकोषकार ने क्षत्रिये नाभिः' और अभिधान चिन्तामणि के कर्ता प्राचार्य हेमचन्द्र ने 'नाभिश्च क्षत्रिये लिखा । उन्होंने अपने पुरुषार्थ और विवेक में एक नये युग का प्रवर्तन किया। इसीलिए उनके नाम पर इस आर्यखण्ड का नाम 'नाभिखण्ड हो गया। नाभि को अजनाभ भी कहते हैं। अतः इस खण्ड को 'अजनाभ वर्ष' भी कहा जाता था। वैदिक पुराणों में भी इस यात का समर्थन मिलता है । स्कन्द पुराण में बताया हैहिमाद्रिअलधेरन्त शिवकारिति समाज ।। १ श्रीमदभागवत में इस सम्बन्ध में यह उल्लेख मिलता है-- 'अजनाभ नामंत वर्ष भारत मिति यत् प्रारभ्य व्यपविशन्ति ॥५७३ डॉ. अवधबिहारीलाल अवस्थी ने 'प्राचीन भारत का भौगोलिक स्वरूप में लिखा है-'सात द्वीपों वालो पृथ्वी में जम्बूद्वीप अत्यन्त प्रसिद्ध भूखण्ड था । पाद्य प्रजापति मनु स्वायम्भुब के पुत्र प्रियव्रत दस राजकुमारों के पिता थे। उनमें तीन तो सन्यासी हो गरे । और सात पुत्रों ने सात महाद्वीपों में ग्राधिपत्य प्राप्त किया । ज्येष्ठ प्राग्नीध्र जम्बूद्वीप के राजा हुए। उनके नौ लड़के जम्बूद्वीप के स्वामी वने । जम्बूद्रोप के नौ वर्षों में से हिमालय और समुद्र के बीच में स्थित भूखण्ड को प्राग्नीघ्र के पुत्र नाभि के नाम पर ही 'नाभिवण्ई' कहा गया ।' डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल ने 'मार्कण्डेय पुराण : सांस्कृतिक अध्ययन' के पादटिप्पण में लिखा है'स्वायम्भुव मनु के प्रिययत, प्रियव्रत के पुत्र नाभि, नाभि के ऋषभ और ऋषभदेव के सौ पुत्र हुए। जिनमें भरत ज्येष्ठ थे। यही नाभि अजनाभ भी कहलाते थे, जो अत्यन्त प्रतापी थे और जिनके नाम पर यह देश 'अजनाभ वर्ष कहलाता था।' काल तीव्रगति से भाग रहा था। भोगभूमि का अन्त हो रहा था । प्रकृति के अन्दर कर्म भूमि की प्रसव वेदना हो रही थी। प्रकृति में चंचलना व्याप्त थी। नित नये और अनोखे परिवर्तन हो नाभिराज द्वारा रहे थे। प्राकाश काले बादलों से भर गया। बादलों में एक मोर इन्द्रधनुष का सतरंगी पुग-प्रवर्तन वितान था, दूसरी ओर रह रह कर बिजली कौंध रही थी । बादल विकट गर्जना कर रहे थे। थोड़ी देर में मूसलाधार वर्षा होने लगी। शीतल पबन के झकोरे चल रहे थे। आज प्रकृति में प्रथम वार एक अनोखी पुलक समाई हुई थी। पपीहा पुलकित होकर प्रथम बार पीउ पीउ' की तान अलाप रहे थे। मोर हर्षित होकर झूम उठे और अपने रंग-बिरंगे पंख फैलाकर नृत्य करने लगे। नदियों में प्रथम बार जल का पुर प्राया। भूमि का उत्ताप शान्त हुना और पृथ्वी के गर्भ से नवीन अंकुरों का जन्म हुमा । नाना प्रकार के विना बोये हुए धान्य उग आये। धीरे धीरे वे बढ़ने लगे। उन पर फल भी लग गये। कल्पवृक्ष बिलकुल नष्ट हो गये थे। प्रजा के समक्ष उदर-पूर्ति की समस्या थी। धान्य खड़े थे किन्तु वह उनका उपयोग करना जानती नहीं थी। कल्पवृक्षों से उसकी समस्या का समाधान होता आया था, किन्तु कल्पवृक्ष समाप्त हो चुके थे। तब प्रमुख लोग नाभि राज के पास गये और दीनतापूर्वक उनसे जीवनोपाय पूछने लगे । नाभिराज ने दयाई होकर प्रजा को आश्वासन दिया-'तुम लोग किसी प्रकार का भय मत करो। कल्पवृक्ष नष्ट हो गये हैं किन्तु अब ये फलों से झके हुए साधारण वृक्ष तुम्हारा वैसा ही उपकार करेंगे, जिस प्रकार कल्पवृक्ष करते थे। किन्तु ये बिषवृक्ष और १. तस्य काले धुतोत्पत्ती नाभिनाल मदश्यत । स तन्निकर्तनोपायमादिशन्नाभिरित्यभूत' ॥भादिपुराण ३११५४ २. प्राचीन भारत का भौगोलिक स्वरूप, फैलाश प्रकाधान लखनऊ, पृ० १२३, परिशिष्ट २
SR No.090192
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy