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भगवान महावीर
उल्लेख मिलते हैं कि सारिपुत्र और मौद्गलायन अपने गुरु संजय परिव्राजक को छोड़कर बुद्ध के संघ में आये । इन उल्लेखों के कारण ही कुछ विद्वान् इन्हीं संजय को उपर्युक्त दोनों बौद्ध धर्म नेताओं के गुरु मानते हैं। संजय ने विक्षेपवाद का प्रवर्तन किया । इनके सिद्धान्त में परलोक, कर्मफल, मृत्यु, पुनर्जन्म प्रादि की मान्यता नहीं है।
गौतम बुद्ध-ये कपिलवस्तु के शाक्य संघ के गणप्रमुख शुद्धोधन और मायादेवी के पुत्र थे। इनका जन्म लुम्बिनी बन गहुमाया। उनके दम लेते ही माता का स्वर्गवास हो गया। उनका विवाह यशोदा नामक राजकुमारी के साथ छपा था और उनके राहुल नामक एक पुत्र हुया था। जरा से जर्जरित एक वृद्ध को और एक मत व्यक्ति को देखकर इन्हें वैराग्य उत्पन्न होगया और वे सत्य को खोज में चुपचाप घर से निकल गये । वं परिव्राजक बने, निम्रन्थ जैन साधु भी बने । किन्तु तप की असह्य कठोरता से घबड़ा गये।
सुप्रसिद्ध इतिहासकार डा० राधाकुमुद मुकर्जी लिखते हैं-"वास्तविक बात यह ज्ञात होती है कि बुद्ध ने पहले प्रात्मानुभव के लिए उस काल में प्रचलित दोनों साधनामों का अभ्यास किया। आलार और उद्रक के निर्देशानसार ब्राह्मण मार्ग का और तब जैन मार्ग का और बाद में अपने स्वतन्त्र साधना मार्ग का विकास किया।" ....."वे मगध जनपद के सैनिक सन्निवेश उरुवेला नामक स्थान में गये और वहाँ नदी तथा ग्राम के समीप, जहाँ भिक्षा को सूविधा थी, रहकर उच्चतर ज्ञान के लिए प्रयत्न करने लगे। इस प्रयत्न का रूप उत्तरोत्तर कठोर होता हमा तप था, जिसका जैन धर्म में उपदेश है, जिसके करने से उनका शरीर अस्थिपंजर और त्वचा मात्र रह गया। उन्होंने श्वास प्रश्वास और भोजन दोनों का नियमन किया एवं केवल मूंग, कुलथी, मटर और हरेणुका का अपने अंजलिपुट की मात्रा भर स्वल्प युष लेकर निर्वाह करने लगे।
गौतम बुद्ध एक बार जैन साधु बने थे, इसका उल्लेख बौद्ध ग्रन्थों में भी मिलता है। वे अपने प्रमुख शिष्य सारिपुत्र से कहते हैं-“सारिपुत्र ! बोधि प्राप्ति से पूर्व मैं दाढ़ी, मूछा का लँचन करता था। मैं खडा रह
कर तपस्या करता था। उकडू बैठकर तपस्या करता था। मैं नंगा रहता था। लौकिक प्राचारों का पालन नहीं . करता था। हथेली पर भिक्षा लेकर खाता था। बैठे हुए स्थान पर प्राकर दिये हए अन्न को, अपने लिए तैयार किये हए अन्ना को और निमन्त्रण को भी स्वीकार नहीं करता था। गभिणी और स्तन पान कराने वाली स्त्री से भिक्षा नहीं लेता था।"
वे बोध गया में पहुँचे और वहाँ एक वृक्ष के नीचे बैठ कर गहन चिन्तन में डूब गये क्या है सत्य । उन्हें लगा कि प्रति ही अनर्थ मूलक है, चाहे वह भोगों की प्रति हो या तप की। मध्यम मार्ग ही धेयस्कर है । यह ज्ञान ही उनकी बोधि कहलाता है। इसके बाद वे काशी के निकट सारनाथ (मृगदाव) पहुंचे और वहां पंचवर्गोय भिक्षयों को उपदेश देकर अपना प्रथम शिष्य बनाया।
- उन्होंने चार आर्यसत्यों पर विशेष बल दिया। आठ मार्ग बताये जो अष्टाङ्गिक मार्ग बहलाते हैं। उनका सिद्धान्त क्षणिकवाद है। अर्थात् प्रत्येक वस्तु क्षणिक है, क्षणस्थाई है। जो है, वह अगले क्षण रहने वाला नहीं है। वह अगले क्षण अपनी सन्तान को अपने संस्कार दे जाता है। इस प्रकार प्रत्येक वस्तु की सन्तान-परम्परा पलती रहती है। सन्तान-परम्परा की समाप्ति ही उसका निर्वाण कहलाता है।
म. बुद्ध के सिद्धान्तों में करुणा को विशेष महत्त्व दिया गया है। किन्तु उनकी करुणा में मांसाहार का निषेध नहीं था । किसी जीव को मारने का तो निषेध किया गया, किन्तु मृत जीव या दूसरे के द्वारा मारे गये जीव का मांस ग्रहण करने की उन्होंने छूट दे दी। परिणाम यह हुआ कि उनके मत के अनुयायियों में मांसाहार निर्वाध रूप से प्रचलित हो गया।
इस प्रकार भगवान महावीर के काल में ये छह तैथिक थे। ये अपने आपको जिन, तीर्थकर या प्रहन्त कहते थे। प्रारम्भ में रेस पाश्वत्य सम्प्रदाय के नग्न साधु बने थे। पश्चात इन्होंने अपने आपको तीर्थकर या महन्त घोषित करके नवीन सम्प्रदायों की स्थापना की। इनमें से प्रत्येक के अनुयायियों की संख्या हजारों पर थी।
१. डॉ. राधाकुमुद मुकर्जी कृत हिन्दू सभ्यता; डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल द्वारा अनूदित, पृ० २३६-४० २. मज्झिम निकाय, महासोहनादसुस ११२