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________________ भगवान महावीर ३८३ नहीं; मात्मा का है। मूल्य बाह्य क्रियाकाण्ड का नहीं; भावना का है। महावीर ने सबके कल्याण, हित और सख की नात कही, इसलिए भगवान सबके हो गये, सब उनके हो गये। लोक मानस में चिरकाल से बढमूल संस्कारों के लिये महावीर का जीव-साम्य का सिद्धान्त एक युगान्तरकारी क्रान्ति का प्राव्हान लेकर पाया था । जो आलीय दम्भ में डूबे हुए थे, उनके संस्कार एकबारगी ही इस सिद्धान्त को पचा नहीं पाये । वे रोष और विरोध लेकर महावीर के निकट पाये और उनकी मनन्त करुणा की छाया में पाते ही उनके शिष्य बन गये । भगवान महावीर के निकट सर्वप्रथम जिन ४४११ व्यक्तिकों ने शिष्यत्व ग्रहण किया था, वे विरोध करने और भगवान को पराजित करने के उद्देश्य से ही पाये थे और वे सभी ब्राह्मण थे। चन्दना पादि मनेक महिलायों ने भी भगवान के निकट मायिका-दीक्षा ली। अनेक क्षत्रिय नरेश भौर उनकी रानियाँ भगवान के धर्म-परिवार में सम्मिलित हुए । जम्नूकुमार आदि अनेक वैश्यों ने उनका शिष्यत्व स्वीकार किया। इस देश के ही नहीं, अन्य देश के अनेक व्यक्त भी भगवान के निकट माकर दीक्षित हए थे। उस समय भारत की भौगोलिक सीमायें वर्तमान की अपेक्षा काफी विस्तृत थीं। उस समय गान्धार आदि देश भारत में ही सम्मिलित थे। इसलिये विदेश शब्द का प्रयोग वर्तमान काल की अपेक्षा प्रयुक्त किया गया है। राजकुमार अभयकूमार का एक मित्र माईक पारस्य (ईरान) का राजकुमार था। वह भगवान का भक्त हो गया था। ग्रीक देश के लगभग पांच सौ योद्धा भगवान के भक्त बन गये थे। फणिक देश (Phocnccis) के वणिक भी भगवान के भक्त हो गये थे। वहाँ का एक व्यापारी तो भगवान के संघ में मुनि बन गया था। इस प्रकार हम देखते हैं कि लोक जीवन पर भगवान महावीर का प्रकल्प्य प्रभाव था और सारा देश भगवान महावीर के जयघोषों से गूंज उठा था। उनकी जयघोष केवल उनके अलौकिक और दिव्य व्यक्तित्व की जयघोष नहीं थी, वस्तुत: यह जयघोष उनके सिद्धान्तों की जयघोष थी। श्वेताम्बर आगमों के अनुसार भगवान महावीर के ४२ विरक्तपानं चातुर्मास इस प्रकार हए-प्रस्थिग्राम में १, चम्पा और पृष्ठ चम्पा में ३, वैशाली और वाणिज्य ग्राम में १२, राजगृह और नालन्दा में १४ मिथिलानगरी भ६, भहिया नगरी में २, पालं भिका पौर श्रावस्ती में १-१, वज्रभूमि में १, और पावापुरी में १ स प्रकार भगवान ने कुल ४२ चातुर्मास किये। इन चातुर्मासों के काल में भगवान की वाणी से असंख्य नर-नारियों को प्रतिबोध प्राप्त हना। अनेर मुनि और प्रायिका बन गये, अनेक ने श्रावक के व्रत ग्रहण किये, अनेक को सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हई, अनेक लोगों को धर्म में प्रास्था दढ़ हई, अनेक ने अनेक प्रकार के व्रत-नियम लेकर जीवन-शुद्धि की ओर अनेक भगवान के धर्म के दढ़ श्रद्धानी बने । इन सबका नाम यहाँ देना न तो संभव हो है और न सभी के नाम शास्त्रों में मिलते हैं। किन्तु यहाँ कुछ व्यक्तियों के नाम दिये जा रहे हैं। ब्राह्मण कुण्ड के ऋषभ-दत्त और देवानन्दा ने भगवान के पास दीक्षा ग्रहण की। क्षत्रियकुण्ड के राजकुमार जमालि और उसकी स्त्रियों ने एक हजार स्त्रियों के साथ दोक्षा लो। कौशाम्बी नरेश शतानीक को बहन जयन्ती ने संयम ग्रहण किया। श्रावस्ती में सुभनोभद्र और सुप्रतिष्ठ ने दीक्षा ग्रहण की । वाणिज्यग्राम में प्रानन्द गाथापति ने श्रावक के व्रत धारण किये। प्रानन्द की सम्पत्ति के सम्बन्ध में शास्त्रों में लिखा है कि उसका चार करोड़ स्वर्ण मान सुरक्षित था, चार करोड़ स्वर्णमान ब्याज पर लगा हुआ था। उसकी अचल सम्पत्ति चार करोड़ स्वर्णमान मूल्य की यी। उसका पशुधन चार प्रकार का था। गाय प्रादि चार प्रकार के पशुधन की संख्या प्रत्येक की १०-१० हजार थी। पर्व दिनों में वह प्रोषध भवन में अपना समय धर्म ध्यान में व्यतीत करता था। राजगही के प्रमुख सेठ गोभद्र के पुत्र शालिभद्र ने अपनी ३२ स्त्रियों के साथ संयम धारण किया । कहते हैं, इन्होंने एक भव्य जिनालय राजगृही में बनवाया था, जिसके अवशेष राजगही के मनियारमठ में अब तक मिलते हैं। शालिभद्र के साथ उनके बहनोई धन्ना सेठ ने भी दीक्षा ले ली। ऐसा प्रतीत होता है कि दिगम्बर शास्त्रों के सुकुमाल सेठ और श्वेताम्बर शास्त्रों के शासिभद्र दोनों एक ही व्यक्ति थे। दोनों की जीवन-घटनाएं एक ही है। उनकीसम्पत्ति और वैभव का कोई परिमाण नहीं था। एक व्यापारी से जिन रत्नकंवलों को राजा श्रेणिक नहीं खरीद सका
SR No.090192
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size15 MB
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