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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास
दि० जैन शास्त्रों में श्रेणिक का चरित्र प्रत्यन्त विस्तारपूर्वक प्राप्त होता है। जैन शास्त्रों के अनुसार मगध देश के राजगृह नगर का नरेश उपश्रेणिक था। उसकी रानी का नाम सुप्रभा था। उससे श्रेणिक उत्पन्न हुआ था । निमित्तज्ञानियों ने बताया कि जो पुत्र सिंहासन पर बैठकर भेरी बजायगा, कुसों को खीर खिलायेगा और स्वयं भी खायेगा, वही इस राज्य का उत्तराधिकारी होगा। एक दिन श्रेणिक ने इसी प्रकार किया। राजा को विश्वास होगया कि मेरा यही पुत्र मेरा उत्तराधिकारी बनेगा। किन्तु इसके अन्य भाई इसका कोई अनिष्ट न करदें, इस भय से और इसकी सुरक्षा की दृष्टि से राजा ने अपमानित करके श्रेणिक को राज्य से निकाल दिया। श्रीणिक अनेक नगरों में भ्रमण करता रहा। इस प्रवास में कांचीपुर नरेश वसुपाल की पुत्री वसुमित्रा, और राजा के मंत्री सोमशर्मा की पुत्री अभयमती के साथ उसने विवाह किया । अभयमती से अभयकुमार नामक पुत्र उत्पन्न हुआ ।
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पिता ने संसार से विरक्त होकर मुनि दीक्षा ले ली और अपने पुत्र चिलात को राज्य सौंप दिया । चिलात ने राज्य पाकर प्रजा के ऊपर अत्याचार करना आरम्भ कर दिया। इससे प्रजा में घोर असन्तोष व्याप्त होगया । यह देखकर मंत्रियों ने श्रेणिक के पास कांचीपुर समाचार भेजा और शीघ्र आकर राज्य भार ग्रहण करने का अनुरोध किया । पाकर प्रेणिक तुरन्त च चिला को हटाकर शासन सूत्र ग्रहण किया। इसके पश्चात् वैशाली के गण प्रमुख महाराज चेटक की पुत्री चेलना कुमारी के साथ अभयकुमार के बुद्धि कौशल द्वारा श्रेणिक का विवाह सम्पन्न हुआ । चेलना जैनधर्मानुयायी थी और श्रेणिक के ऊपर बुद्ध का प्रभाव था, किन्तु चेलना के प्रयत्न से श्रेणिक भी जैनधर्मानुयायी बन गया। चेलना के दो पुत्र हुए- वारिषेण और कुणिक ।
श्रेणिक जिस घटना के कारण जैन धर्म के प्रति श्रद्धानी बना, वह कथा प्रत्यन्त रोचक है। एक बार श्रेणि शिकार खेलने वन में गया। वहाँ ध्यानस्थित यमधर मुनि को देखकर उसे बड़ा क्रोध प्राया । वह सोचने लगा- इसने अपशकुन कर दिया है, जिससे मुझे कोई शिकार नहीं मिला । श्रोध में भरकर उसने पांच सौ शिकारी कुत्ते मुनि के ऊपर छोड़ दिये। किन्तु मुनि के तप के प्रभाव से वे कुत्ते मुनि के समीप पहुँचकर शान्त गये और मुनि की तीन प्रदक्षिणा देकर मुनि के समीप बैठ गये । यह दृश्य देखकर तो राजा को मुनि के ऊपर और भी अधिक
माया । उसने सुनि को लक्ष्य करके बाण चलाये, किन्तु वे पुष्पमाल बन गये और मुनि के चरणों में प्रा गिरे। राजा के मन में उस समय इतनी तीव्र कषाय थी कि उसने उसी समय सप्तम नरक गति का और उत्कृष्टतम तेतीस सागर की मा का वध कर लिया। किन्तु श्रेणिक के मन पर मुनि के तप, साधना और अतिशय का स्वतः ऐसा अद्भुत प्रभाव पड़ा कि वह भक्ति से मुनि की प्रदक्षिणा देकर और उनके चरणों की वन्दना करके मुनि के निकट बैठ गया । दयालु मुनि ने ध्यान समाप्त करके राजा को जैन धर्म का उपदेश दिया जिसे सुनकर श्रेणिक नरेश के मन में जैन धर्म के प्रति निर्मल और प्रगाढ़ श्रद्धा उत्पन्न हो गई और क्षायिक सम्यग्दर्शन हो गया । सम्यग्दर्शन के कारण क्षणिक का नरक गति का बन्ध सप्तम नरक के स्थान पर प्रथम नरक का रह गया और तेतीस सागर की आयु के स्थान में चौरासी हजार वर्ष की आयु रह गई । इसके पश्चात् वह भगवान महावीर का अनन्य भक्त बन गया । यद्यपि वह कभी-कभी गृध्रकूट पर्वत पर म० बुद्ध के पास भी जाता था, ऐसे क ुछ उल्लेख बौद्ध शास्त्रों में उपलब्ध होते हैं किन्तु ऐसा वह राजनयिक कारणों से करता था, जिससे बोद्ध जगत की सहानुभूति और समर्थन प्राप्त कर सके । वह भक्ति
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ऐसा नहीं करता था ।
जब भगवान महावीर का पदार्पण राजगृह में विपुलाचल पर होता था, तब वह भगवान के दर्शन करने अवश्य जाता था । जैन शास्त्रों में वह विपुलाचल पर भगवान के समवसरण में प्रधान श्रोता बताया गया है तथा दिगम्बर परम्परा में भगवान के मुख्य गणधर गौतम स्वामी से उसने अनेक तत्व सम्बन्धी प्रश्न किये हैं। जैन शास्त्रों के प्रध्ययन से यह भी ज्ञात होता है कि गौतम स्वामी ने जैन तत्व ज्ञान और कथानकों का निरूपण श्रेणिक की जिज्ञासा के समाधान स्वरूप ही किया है। यहाँ तक कि जैन शास्त्रों में उसे अवसर्पिणी काल का भावी प्रथम तीर्थकर बताया है, जिसका नाम पद्मनाभ होगा ।
भगवान महावीर का प्रभाव न केवल श्रेणिक के ऊपर ही था, अपितु उसका सारा परिवार भी भगवान का अनन्य भक्त था । श्रेणिक के पुत्र वारिषेण, चिलात मोर प्रभयकुमार तथा महादेवी चेलना भगवान की भक्त थी
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