SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 374
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भगवान महावीर को साम्राज्य प्राप्ति में लिच्छवियों की सहायता का सबसे बड़ा योगदान मिला था और समुद्रगुप्त अपने श्रापको लिच्छवि दौहित्र कहकर गर्व करता था । पिसा महावीर के पिता का नाम सिद्धार्थ था। वे कुण्डपुर के राजा थे। इस विषय में दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही परम्पराये एकमत है। दिगम्बर परम्परा के उत्तर पुराण (७४ । २५२ ) में उन्हें 'राज्ञः कुण्डपुरेशस्य' कहा है। षट्खण्डागम भाग १ (४/१/४४ ) में 'कुण्डपुर वरिस्सर' बताया है। श्वेताम्बर परम्परा के विषष्ठि महावीर के माता - शलाका पुरुष चरित में ( १०/३/४ ) सिद्धार्थोऽस्ति महीपतिः' कहा है। कल्पसूत्र में ( २ ५०, ४१६८, ४७२, ४४८६) में 'सिद्धत्ये राया' 'सिद्धत्येणं रण्ण' 'सिद्धत्पस्स रण्णो' यादि वाक्यों का प्रयोग किया गया है। इन उल्लेखों से इस विषय में कोई सन्देह नहीं रह जाता कि सिद्धार्थ कुण्डपुर के राजा थे । वे अत्यन्त वैभवसम्पन्न थे । वैशाली के गणप्रमुख महाराज चेटक ने अपनी पुत्रियों का विवाह उस युग के प्रसिद्ध राजाओं के साथ किया था। यदि सिद्धार्थ वस्तुतः साधारण स्थिति के क्षत्रिय होते तो चेटक कभी अपनी ज्येष्ठ पुत्री का विवाह उनके साथ न करते । कल्पसूत्र और याचारांग में सिद्धार्थ के तीन नाम दिये गए हैं(१) सिद्धार्थ, (२) श्रेयान्स और (३) यशस्वी । १९ महावीर की माता त्रिशला महाराज चेटक की राजकुमारी थीं। उनका विवाह राजा सिद्धार्थ के साथ हुआ या । श्रतः वे राजदुहिता एवं राजरानी थीं। हरिवंशपुराण २१६ में उन्हें राजा सिद्धार्थ को पटरानी बताया हैं । दिगम्बर ग्रन्थों में उनके दो नाम मिलते हैं - (१) त्रिशला, श्रौर (२) प्रियकारिणी । श्वेताम्बर ग्रन्थों में उनके तीन नाम आये हैं- ( १ ) त्रिशला (२) प्रियकारिणी और (३) विदेदिन्ना । वस्तुतः विदेहदिन्ना कोई नाम नहीं था । विदेह की पुत्री थीं, इसलिए उन्हें विदेहदिन्ना, विदेहदत्ता आदि कहा गया है। वंश और गोत्र - महाराज सिद्धार्थ और महावीर का गोत्र काश्यप था। महारानी त्रिशला के पितृपक्ष का गोत्र वाशिष्ठ था । जहाँ तक महावीर के वंश का सम्बन्ध है, दिगम्बर परम्परा में उन्हें नाथ वंश में उत्पन्न बताया है । संस्कृत ग्रन्थों में नाथान्वय शब्द का प्रयोग किया गया है और प्राकृत प्रत्थों में 'शाह' कुलोत्पन्न बताया है । षट्खण्डागम के चतुर्थ वेदना खण्ड भाग ६ (४|१|४४ ) में कुंडलपुर पुरवरिस्सर सिद्धत्थक्खत्तियस्स णाह कुले' दिया गया है। जय धवला के 'पेज्ज दोस वित्ती' प्रधिकार में भी यह गाथा उद्धृत की गयी है । 'तिलोयपणती' ग्रन्थ में तीर्थंकरों के वंशों का वर्णन करते हुए 'णाहोग्गवंसेसु वीरवासा' इस वाक्य द्वारा महावीर का णाहवंश और पार्श्वनाथ का उग्रवंश बताया है । नाह इस प्राकृत शब्द का संस्कृत रूप नाथ बनता है । धनञ्जयकृत 'अनेकार्थनाममाला' नामक कोष में महावीर के पर्यायवाची शब्द देते हुए नाथान्वय शब्द का प्रयोग किया गया है। वह श्लोक इस प्रकार है सन्मतिर्महतिवीरो महावीरोऽन्त्यकाश्यपः । नाथान्ययो वर्धमानो यत्तीर्थमिह साम्प्रतम् ॥ ११॥ इसमें नाथान्वय शब्द विशेष महत्वपूर्ण है। वस्तुतः नाथवंश प्रत्यन्त प्राचीन है। भगवान ऋषभदेव ने जिन चार वंशों की स्थापना की थी, उनमें नाथवंश भी था। इन चार वंशों में कुरु, हरि, नाथ, मौर उग्रवंश सम्मिलित थे । दिगम्बर परम्परा के सभी शास्त्रों में महावीर के वंश का नाम नाथवंश ही मिलता है । किन्तु श्वेताम्बर साहित्य में सर्वत्र उन्हें ज्ञातृवशी लिखा है। कल्पसूत्र, प्राचारांग, उत्तराध्ययन सूत्रकृतांग श्रादि प्राकृत ग्रन्थों में 'णाय कुलसि णाये, णायणपुते, णायकुलचंदे' श्रादि शब्दों का प्रयोग किया गया है। हेमचन्द्र आदि संस्कृत ग्रन्थकारों ने उन्हें 'ज्ञातवंश्यः' लिखा है। टीकाकारों ने गाय का अर्थ भी ज्ञात किया है। बौद्ध साहित्य में तो महावीर के लिए सर्वत्र 'निगंठ नातपुत' शब्द दिया है, जिसका अर्थ होता है निर्ग्रन्थ ज्ञातृपुत्त । इस वंश भेद का कारण क्या था, इस सम्बन्ध में विचार करने पर ऐसा प्रतीत होता है कि महावीर वस्तुतः नाथवंशीय थे । प्राकृत ग्रन्थों में नाथ के लिये 'माह' शब्द का प्रयोग होता आया है। किसी भूल या प्रमाद के परिणामस्वरूप श्वेताम्बर ग्रन्थों में 'वाह' के स्थान पर 'शाम' शब्द प्रयुक्त होने लगा। बौद्ध साहित्य में उसीके
SR No.090192
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy