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________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास जैन मन्दिरों की संरचना अनुसार जैन मन्दिरों का निर्माण-काल न प्रतिमाओं के निर्माण-काल से प्राचीन और उनका क्रमिक प्रतीत नहीं होता। लोहानीपुर, थाबस्ती, मथरा आदि में जैन मन्दिरों के अवशेष विकास उपलब्ध हए हैं, किन्तु अबतक सम्पूर्ण मन्दिर कहीं पर भी नहीं मिला। इसलिये प्राचीन जैन मन्दिरों का रूप क्या था, यह निश्चित तौर पर नहीं कहा जा सकता। किन्तु गुहा-मन्दिर और लयण ईसा पूर्व सातबी पाठदों शताब्दी तक के मिलते हैं । तेशपुर के लयण, उदयगिरि-खण्डगिरि के गृहामन्दिर, अजन्ता-ऐलौरा और बादामी की गुफानों में उत्कोण जैन मुर्तियां इस बात के प्रमाण हैं कि गूफानों को मन्दिरों का रूप प्रदान कर उनका धार्मिक उपयोग ईसा पूर्व से होने लगा था। इन गुहामन्दिरों का विकास भी हमा । विकास का यह रूप मात्र इतना ही था कि कहीं-कहीं गुफामों में भित्ति-चित्रों का अंकन किया गया। ऐसे कलापूर्ण भित्ति चित्र सित्तन्नवासन आदि गुफाओं में अब भी मिलते हैं। गुहा मन्दिरों में सामान्य मन्दिरों की अपेक्षा स्थायित्व अधिक रहा । इसीलिये हम देखते है कि ईसा पूर्व का कोई मन्दिर आज विद्यमान नहीं है, जबकि गुहा-मन्दिर अब भी मिलते हैं। लगता है, उत्तर की अपेक्षा दक्षिण में मन्दिरों की सुरक्षा और स्थायित्व की ओर अधिक ध्यान दिया गया। इसके दो ही कारण हो सकते हैंप्रथम तो यह कि दक्षिण को उत्तर की अपेक्षा मूति-विध्वंसक मुस्लिम मात्रान्ताओं का कोप कम सहना पड़ा । दूसरे यह कि दक्षिण में मन्दिरों की भव्यता और विशालता के साथ उसे चिरस्थायी बनाने की भावना भी काम करती रही । दक्षिण के अधिकांश मन्दिर राजाओं, रानियों, राज्याधिकारियों और राजश्रेष्ठियों द्वारा निर्मित हुए, जबकि उत्तर के अधिकांश मन्दिरों का निर्माण सामान्य जनों ने कराया। शक कुषाणकाल के मथरा के मूर्ति-लेखों से प्रकट है कि वहाँ के पायागपद्र, प्रतिमा पीर मन्दिर स्वर्णकार, वेश्या आदि ने ही बनवाये थे। ककूभग्राम का गुप्तकालीन मानस्तम्भ एक सुनार ने बनवाया था । अस्तु । पुरातत्त्वज्ञों के मतानुसार महावीर-काल में जिनायतन नहीं थे, बल्कि यक्षायतन और यक्ष-चत्य थे। श्वेताम्बर सूत्र-साहित्य में किसी जिनायतन में महावीर के ठहरने का उल्लेख नहीं प्राप्त होता, बल्कि यक्षायतनों में उनके ठहरने के कई उल्लेख मिलते हैं। इन यक्षायतनों और चैत्यों के प्रादर्श पर जिनायतन या जिन-मन्दिरों को रचना की गई, यक्ष-मूर्तियों के अनुकरण पर जिन-मूर्तियाँ निर्मित हुई और यक्ष एवं नाग-पूजा पद्धति से जिन-मूर्तियों की पूजा प्रभावित हुई। किन्तु दिगम्बर साहित्यिक साक्ष्य के अनुसार कर्मभूमि के प्रारम्भिक काल में इन्द्र ने अयोध्या में पांच मन्दिरों का निर्माण किया; भरत चक्रवर्ती ने ७२ जिनालय बनवाये; शत्रुघ्न ने मथरा में अनेक जिन-मन्दिरों का निर्माण कराया । जैन मान्यतानुसार तो तीन लोकों की रचना में कृत्रिम और अकृत्रिम चैत्यालयों का पूजा-विधान जैन परम्परा में अबतक सुरक्षित है। इसलिये यह कहा जा सकता है कि जन परम्परा में जिन चैत्यालयों की कल्पना बहत प्राचीन है। किन्तु पुरातत्त्व को ज्ञात जैन मन्दिरों का प्रारम्भिक रूप-विधान कैसा था, इसमें अवश्य मतभेद दृष्टिगोचर होता है। लगता है, प्रारम्भ में मन्दिर सादे बनाये जाते थे। उन पर शिखर का विधान पश्चात्काल में शिखर सुमेरु और कैलाश के अनुकरण पर बने । अनेक प्राचीन सिक्कों पर मन्दिरों का प्रारम्भिक रूप देखने में आता है। मथुरा की वेदिकानों पर मन्दिराकृतियाँ मिलती हैं। जिन्हें विद्वानों ने मन्दिरों का प्रारम्भिक रूप माना है। ई० पू० द्वितीय और प्रथम शताब्दी के मथुरा-जिनालयों में दो विशेषतायें दिखाई देती हैं--प्रथम वेदिका और द्वितीय शिखर । इस सम्बन्ध में प्रो० कृष्णदत्त वाजपेयी का अभिमत है कि मन्दिर के चारों ओर वक्षों की वेष्टनी बनाई जाती थी। इसे ही वेदिका कहा जाता था। बाद में यह वेष्टनो प्रस्तरनिर्मित होने लगी। मौर्य और शुग काल में जैन मन्दिरों का निर्माण अच्छी संख्या में होने लगा था। उस समय ऊंचे स्थान पर स्तम्भों के ऊपर छत बनाकर मन्दिर बनाये जाते थे। छत गोलाकार होती थी, पश्चात् प्रण्डाकार बनने लगी। शक-सातवाहन-काल (ई०पू० १०० से २००ई०) में मन्दिरों का निर्माण और अधिक संख्या में होने लगा। इस काल में जैन मन्दिरों, उनके स्तम्भों और ध्वजानों पर तीर्थकर की मूर्ति बनाई जाने लगी। इस काल में
SR No.090192
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size15 MB
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