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________________ सप्तविंशतितम अध्याय भगवान महावीर पूर्व भष-भगवान महावीर तीर्थकर थे किन्तु तीर्थकर पद तक पहुँचने के लिए जन्म-जन्मान्तरों में साधना को न जाने कितनी ऊबड़ खाबड़ घाटियों में से गुजरना पड़ा। इन घाटियो में कहीं वे गिरे, कहीं सम्हल कर आगे बढ़े । जब एक बार वे अपने पैर जमाकर ठोस भूमि में सावधानी के साथ खड़े हुए और आगे बढ़ना प्रारम्भ किया तो वे साधना की उच्च से उच्चतर भूमिका पर चढ़ते गये और अन्त में एक दिन अपना लक्ष्य प्राप्त करना उन्होंने सुनिश्चित कर लिया। यह लक्ष्य द्विमुखी था-एक मुख था जगत का कल्याण करना और दूसरा मुख था आत्म-कल्याण करना। फिर एक दिन महावीर तीर्थकर के रूप में उनका जन्म हया। उसको उस नानाविध रूप रंग वाली जन्म-परम्परा को जानना प्रत्यन्त रुचिकर होगा क्योंकि उसके जाने विना एक तीर्थकर को पूर्व साधना अनजानी रह जायगी और यह भी अनजाना रह जायगा कि तीर्थकर जैसे महानतम पद की प्राप्ति के लिए कितनी उच्च स्तरीय नैतिक भूमिका और अनवरत प्राध्यात्मिक प्रयास की आवश्यकता पड़ती है। किसी जीव को पिछली जन्म-परम्परा की कोई प्रादि नहीं है। किन्तु जिस जन्म से महावीर के जीव की जीवनदृष्टि में साधारण सा भी परिवर्तन प्राया था, उसी जन्म से इस शृंखला का प्रारम्भ करते हैं। इस जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्र में सीता नदी के उत्तर किनारे पर पुष्कलावती नामक एक देश था। उसकी पुष्करिणी नगरी में मधु नामक गहन वन था। उस वन में भीलों की एक बस्ती थो । पुरूरवा वहाँ के भीलों का सरदार था। कालिका उसकी स्त्री थी। एक दिन पति-पत्नी वन में घूमने निकले। पुरूरवा ने एक झाड़ी में दो चमकती हुई प्रांखें देखीं। पुरूरवा ने समझा-वहां हिरण बैठा है । उसने धनुष पर वाण चढ़ाया और ज्यों ही घर-संधान के लिए उद्यत हुआ, कालिका ने बाण पकड़ लिया और बोली-'क्या गजब करते हो । वे तो बन देवता हैं'। पुरूरवा पातक से बिजड़ित हो गया। वह प्रातंकित होकर वन देवता के निकट पहुंचा। दोनों ने वन देवता के चरणों में झुक कर नमस्कार किया और उनके मागे वन्य फल फल चढ़ाये। वे धन देवता नहीं, सागरसेन नामक दिगम्बर मुनि थे। उन्होंने आशीर्वाद दिया-धर्म-लाभ हो। सुनकर भीलराज कुछ आश्वस्त हुना—'वनदेवता ने मेरा अपराध क्षमा कर दिया है, वे मुझसे प्रसन्न नहीं हैं। मुनिराज प्रवधिज्ञानी थे। वे समझ गये-यह सरल प्राणी निकट भव्य है, इसकी मनोभूमि धर्म के बीज डालने के लिये उपयुक्त है। इसमें डाला हुआ बीज अवश्य उगेगा। वे बोले-भीलराज ! यह मनुष्य-जीवन घड़ा दुर्लभ है, किन्तु तुम हो जो इसे दासता में ही गंवाये दे रहे हो।' दासता की बात सुनकर वह स्वतन्त्रचेता सरदार क्षुब्ध हो उठा। वह कहने लगा-'कौन कहता है कि मैं दास हूँ। मैं भीलों कासरदार हैं। इस बन में कोई पक्षी भी मेरे इच्छा के बिना नहीं उड़ सकता।' मुनिराज मुस्कराये, मानो उषाकाल की कसी खिल उठी हो। वे बोले-'ठीक है, तुम भीलों के सरदार हो। किन्तु क्या तुम अपनी तीन अंगुल की जीभ के दास नहीं हो। क्या उसी की तृप्ति के लिये ही तुम जीवों को नहीं मारते फिरते हो!'सरदार की समझ में यह बात नहीं पाई। वह बोला-'प्रगर शिकार न करू तो पेट कैसे भरूं ?'मुनिराज सुनकर बोले-'पेट भरने के लिये प्रकृति ने फलफल, अन्न प्रचुर मात्रा में उत्पन्न किये हैं। क्यों नहीं तुम उनसे पेट भरते हो। पेट भरने का साधन केवल मांस ही तो नहीं हैं। भीलराज असमंजस में पड़ गया। कुछ देर सोचता रहा, फिर बोला-'देवता! तुम जानते हो, मैं ३४९
SR No.090192
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size15 MB
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