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भगवान पार्श्वनाथ
फण मण्डप को कुचलने का प्रयत्न करने लगा, किन्तु इससे नागराज तनिक भी विचलित नहीं हुआ। असुर के पास जो भी भीषण शस्त्र थे, उन सबको उसने फेंका ।
तभी पद्मावती देवी घवल छत्र धारण किये हुए श्राकाश में प्रगट हुई। महासुर कमठ जिस विशाल और भयंकर शस्त्र को छोड़ता, वह जल रूप परिवर्तित होजाता या नभ में चक्कर लगाता या उसके सौ-सौ टुकड़े हो जाते। तभी शुक्ल ध्यान में लीन रहनेवाले पार्श्वनाथ को केवलज्ञान की प्राप्ति होगई। इसी समय कमठासुर के मन में भय के साथ-साथ महान् चिन्ता उत्पन्न हुई। तभी सुरेश्वरों के आसन कम्पायमान हुए । भवनवासियों के भवनों में शंख स्वयं बज उठे । ज्योतिष्क देवों के भवनों में सिंह गर्जना होने लगी । कल्पवासी देवों के गृहों में घण्टे बजने लगे । व्यन्तर देवों के ग्रावासों में पट पटह स्वयं बजने लगे । वे सब विमानों में श्रारूढ़ होकर मन और पवन की गति से वले और वहाँ श्राये, जहाँ जिनेन्द्र विराजमान थे ।
इसी समय इन्द्र ने रौद्र जल देखा मानो वन में भीषण समुद्र हो । उसे देखकर सुरेन्द्र मन में विस्मित हुआ । उसे ज्ञात हो गया कि कमठासुर ने उपसर्ग किया है। उसने क्रोधयुक्त होकर महायुध बज्र को आकाश में घुमाकर तथा पृथ्वी पर पटक कर छोड़ा। उस असुर देव का साहस छूट गया, वह तीनों लोकों में भागता फिरा । वह नभ में भागने लगा, समुद्र में घुस गया। किन्तु वह जहाँ भी गया, वहीं पर बच जा पहुंचा। तब वह कहीं त्राण न पाकर जिनेन्द्र की शरण में आया और उन्हें प्रणाम किया। उसी क्षण वह महासुर भयमुक्त होगया, बज्र भी कृतार्थ हो नभ में चला गया | सुरेन्द्र भगवान के समीप झाया। उसने भगवान की तीन प्रदक्षिणाएं दीं और जिनेन्द्र के चरणों में वन्दना की। उसने समवसरण की रचना की। इसी समय कमठासुर ने जिनवर के चरणों में सिर रखते हुए प्रणाम किया | उसने बार-बार भगवान की स्तुति की और सम्यक्त्व ग्रहण करके दस भवों के वैर का त्याग किया।'
भगवान के शुक्ल ध्यान के प्रभाव से उनका मोहनीय कर्म क्षीण होगया, इसलिये कमठ शत्रु का सब उपसर्ग दूर होगा। पार्श्वप्रभु ने द्वितीय शुक्ल ध्यान के द्वारा प्रवशिष्ट तीन घातिया कर्मों को भी जीत लिया, जिससे उन्हें चैत्र कृष्णा चतुर्दशी के दिन प्रातःकाल के समय विशाखा नक्षत्र में लोक अलोक को केवलज्ञान कल्याणक प्रकाशित करने वाला केवलज्ञान प्राप्त हो गया । इन्द्रों ने प्राकर केवलज्ञान की पूजा की। सम्बर नामक ज्योतिष्क देव भी कालसविध पाकर शान्त हो गया मीर उसने सम्यग्दर्शन सम्बन्धी विशुद्धता प्राप्त करली । यह देख उस वन में रहने वाले सातसौ तपस्वियों ने संयम धारण कर लिया वे सम्यग्दृष्टि होगये और भगवान पार्श्वनाथ के चरणों में नमस्कार किया। ये सातसौ तपस्वी महीपाल वापस के शिष्य थे । उन्होंने भगवान पार्श्वनाथ के चरणों में जिन दीक्षा लेली । प्राचार्य समन्तभद्र ने भी 'स्वयंभू स्तोत्र' की पार्श्वनाथ स्तुति में सात सौ तापसों द्वारा दिगम्बर दीक्षा लेने का उल्लेख किया है ।
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इसी समय गजपुर नरेश स्वयंभू को ज्ञात हुआ कि तीर्थंकर पार्श्वनाथ को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है। वह अपने परिजनों के साथ वैभवपूर्वक वहाँ प्राया । जिनेन्द्र की परम ऋद्धि को देखकर उसका मन प्रव्रज्या पर गया । जिनवर को प्रणाम कर उसने उसी क्षण दीक्षा लेली। त्रिलोकीनाथ ने धर्म चक्र प्रवर्तन किया । वहाँ उनका प्रथम उपदेश हुआ। मुनि स्वयम्भू भगवान के प्रथम गणधर बने । स्वयम्भू के साथ उनकी कुमारी कन्या प्रभावती मैं मार्यिका दीक्षा लेली । वह भगवान के प्रार्यिका संघ की मुख्य गणिनी हुई ।
कल्लुर गड्डु ग्राम ( जिला शिमोगा, मैसूर) में सिद्धेश्वर मन्दिर के पास एक शिलालेख सन् १९२२ का उपलब्ध हुआ है । उसमें बताया है कि जब भगवान नेमिनाथ का निर्वाण हुआ, उस समय गंगवंशी राजा विष्णुगुप्त महिच्छत्र में राज्य कर रहा था। उसने इन्द्रध्वज पूजा की। उसकी स्त्री पृथ्वीमतो थी। उसके दो पुत्र थे- भगदत्त और श्रीदत्त | भगदत्त कलिंग देश पर और श्रीदत्त महिष्व पर राज्य कर रहा था। जब भगवान पार्श्वनाथ को केवलज्ञान हुम्रा, तब इस राजा के वंशज प्रियबन्धु ने भगवान पार्श्वनाथ के समवसरण में आकर पूजा की। तब इन्द्र ने प्रसन्न होकर इस राजा को पांच श्राभूषण दिये और छित्रपुर का नाम विजयपुर रखा ।
१. यमीश्वरं वीक्ष्य विधुतकल्मषं तपोधनास्तेऽपि तथा बुभूषवः । वनौकस: स्वश्रमवन्ध्यबुद्धयः शमोपदेशं शरणं प्रपेदिरे ।। १३४ ॥