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________________ ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती धानामात्य ने कारीगर लगाकर यज्ञमण्डप से लाक्षा-गृह तक सुरंग खुदवाली। इसकी किसी को काना-कान खबर नहीं हुई । प्रधानामात्य ने पुष्पचल को भी दीर्घ और चलना की दुरभिसन्धि का समाचार गुप्त रूप से पहुँचा दिया। यथासमय विवाह सम्पन्न हो गया। वर-वधु को लाक्षा-गृह में मुहागरात मनाने के लिये भेज दिया गया । मन्त्री-पुत्र वरधनु भी ब्रह्मदत्त के साथ लाक्षा-गह में गुप्त रीति से प्रविष्ट हो गया। मन्त्री को दीर्घसूत्रता के आगे व्यभिचारी दीर्घ की भी नहीं चली। वधु के स्थान पर उसी के समान रूपवालो एक दासी-पुत्री ब्रह्मदत्त के साथ लाक्षा-गह में गई, यह भी किसी को ज्ञात नहीं हो सका। अर्धरात्रि के समय षड्यन्त्रकारियों ने लाक्षा-गृह में प्राग लगवादी । लाक्षागृह भयानक अग्निज्वालाओं में भस्म का ढेर हो गया। ब्रह्मदत्त वरधन के साथ सुरंग-मार्म से यज्ञ-मण्डप में पहुँचा। वहाँ योजनानुसार दो वेगगामी प्रश्व बंधे हुए थे। दोनों अश्वों पर बैठ कर चल दिये । प्रधानामात्य धन भी उन्हें विदाकर वहां निरापद स्थान के लिये पलायन कर गया। दोनों मित्र भागते हुए काम्पिल्यपुर की सीमा को पीछे छोड़कर बहुत दूर निकल गये। इतनी लम्बी यात्रा के कारण घोड़ों ने दम तोड़ दिया। वे फिर पैदल ही भागने लगे । वे कोष्ठक ग्राम के बाहर पहुंचे। उन्होंने वेष बदल लिया और भिक्षुक के रूप में ग्राम में प्रवेश किया। एक ब्राह्मण ने उन्हें प्रेमपूर्वक भोजन कराया। भोजन कर चकने पर ब्राह्मणी ब्रह्मदत्त के सिर पर प्रक्षत क्षेपण करती हुई अपनी अत्यन्त रूपवती कन्या के साथ हाथ जोड़कर खड़ी हो गई। दोनों मित्र आश्चर्य मुद्रा में देखने लगे । ब्राह्मणी बोली-भस्म से ढकी अग्नि कहीं छिपती है। भस्मी रमा लेने से भाग्य थोड़े ही छिपता है । निमित्तज्ञानियों ने बताया है कि मेरी यह कन्या वन्धुमती चक्रवर्ती की रानी बनेगी और वह भिक्षुक के वेष में स्वयं द्वार पर उपस्थित होगा। उन्होंने यह भी बताया था कि जो व्यक्ति अपने श्रीवत्स चिन्ह कोसे छिपामेन तुम्हारे पर फिर भोजन कर, उसी के साथ इस कन्या का विवाह कर देना। यह देखिये, वस्त्र के नीचे थीवत्स चिन्ह चमक रहा है।' आखिर ब्राह्मणी की बात स्वीकार कर ली गई । ब्रह्मदत्त के साथ वन्धुमती का विवाह हो गया। प्रातःकाल होने पर नई विपत्ति ने घेर लिया। भागने के लिये कोई मार्ग ही नहीं था । दीर्घ के सैनिकों ने सारे गांव के मार्गों को घेर खखा था । वे दोनों झाड़ियों में छिपते हुए निकले, किन्तु वरघनु पकड़ा गया। सैनिकों ने उसे बहत मारा । किन्तु ब्रह्मदत्त किसी प्रकार भाग निकला । तीन दिन बाद वह जगल में एक तापस से मिला । वह उसे कुलपति के पास ले गया। कुलपति के पुराने पर उसने सारा वृत्तान्त सुना दिया । वृत्तान्त सुनकर मौर उसकी छाती पर श्रीवत्स लांछन देखकर कुलपति बोले-कुमार ! तुम्हारे पिता ब्रह्म मेरे बड़े भाई के तुल्य थे। तुम इस आश्रम को अपना ही घर समझकर यहाँ निश्चिन्ततापूर्वक रहो। वहाँ रहते हुए ब्रह्मदत्त ने सब प्रकार के शास्त्र और अस्त्र-शस्त्र संचालन में निष्णता प्राप्त कर ली। अब वह युवा हो गया था। एक दिन बह कुछ तापसों के साथ वन में गया । वहाँ उसने हाया के तुरन्त के पद-चिन्ह देखे । वह तापसों द्वारा निषेध करने पर भी पद-चिन्हों का अनुसरण करता हुआ ए.थानक वन में पहुंचा । वहां एक मदोन्मत्त हाथी खड़ा था। हाथी चिंघाड़ता हुआ उस पर झपटा। किन्तु ब्रह्मदत्त कीड़ामात्र में उस पर सवार हो गया। इतने में मूसलाधार वर्षा होने लगी। हाथी भयभीत होकर भागा । ब्रह्मदत्त एक वृक्ष की शाखा पकड़कर लटक गया । किन्तु वह राह भूल गया । आगे चलने पर एक नदी मिली। वह उसे तरकर पार हो गया। आगे उसे एक उजड़ा हुमा ग्राम मिला और एक झाड़ी में उसे ढाल और तलवार मिली। उसने उन्हें उठा लिया । कुतूहलवश उसने मांसों के झुरमुट पर तलवार चलाई । किन्तु एक मनुष्य का सिर धड़ से अलग होकर दूर जा पड़ा । उसे ज्ञात हथा कि वह मनुष्य बांसों में उल्टा लटक कर कोई विद्या सिद्ध कर रहा था। उसे बड़ा दुःख हुआ। आगे बढ़ने पर उसने एक रमणीय उद्यान में एक भव्य भवन देखा । बह अपना कुतूहल नहीं रोक सका। वह सोढ़ियों पर चढ़ कर महल में जा पहुंचा। वहां उसने एक सुसज्जित कक्ष में एक सुन्दरी बाला को चिन्तित मुद्रा में पलंग पर बैठे हुए देखा । वह पूछने लगा-'सुन्दरी'! तुम कौन हो और इस एकान्त भवन में शोकमग्न मुद्रा में क्यों बैठी हो?'
SR No.090192
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size15 MB
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