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________________ १६ तीर्थकर और प्रतीकजा किन्तु इतने से सम्राट भरत के मन को सन्तुष्टि नहीं हुई। इससे भगवान की पूजा का उनका उद्देश्य पूरा नहीं होता था । तब उन्होंने इन्द्र द्वारा बनाये गए जिनायतनों से प्रेरणा प्राप्त करके कैलाशगिरि पर ७२ जिनायतनों का निर्माण कराया और उनमें अनर्थ्य रत्नों की प्रतिमायें विराजमान कराईं। मानव के इतिहास में तदाकार प्रतीकस्थापना और उसकी पूजा का यह प्रथम सफल उद्योग कहलाया । श्रतः साहित्यिक साक्ष्य के आधार पर यह स्वीकार करना असंगत न होगा कि नागरिक सभ्यता के विकास काल की उपा-वेला में ही मन्दिरों ओर मूर्तियों का निर्माण प्रारम्भ हो गया था । पौराणिक जैन साहित्य में मन्दिरों और मूर्तियों के उल्लेख विभिन्न स्थलों पर प्रचुरता से प्राप्त होते हैं । सगर चक्रवर्ती के साठ हजार पुत्रों ने भरत चक्रवर्ती द्वारा बनाये हुए इन मन्दिरों की रक्षा के लिए भारी उद्योग किया था और उनके चारों ओर परिखा खोदकर भागीरथी के जल से उसे पूर्ण कर दिया था। लंकाधिपति रावण इन एन्टिरों के दर्शनों के लिए कई बार आया था । लंका में एक शान्तिनाथ जिनालय था, जिसमें रावण पूजन किया करता था और लंका विजय के पश्चात् रामचन्द्र, लक्ष्मण श्रादि ने भी उसके दर्शन किये थे । साहित्य में ई० पूर्व ६०० से पहले के मन्दिरों के उल्लेख मिलते हैं। भगवान पार्श्वनाथ के काल में किसी कुवेरा देवी ने एक मन्दिर बनवाया था, जो बाद में देवनिर्मित वोद्व स्तूप कहा जाने लगा । यह सातवें तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ के काल में सोने का बना था। जब लोग इसका सोना निकाल कर ले जाने लगे, तब कुवेरा देवी ने इसे प्रस्तर खण्डों और ईटों से ढंक दिया । (विविध तीर्थ कल्प-मथुरापुरी कल्प ) । स्थापत्य की इस अनुपम कलाकृति का उल्लेख कंकाली टीला (मथुरा) से प्राप्त भगवान मुनिसुव्रत की द्वितीय सदी की प्रतिमा की चरण- चौकी पर अंकित मिलता है। भगवान पार्श्वनाथ के पश्चात् दन्तिपुर (उड़ीसा) नरेश करकण्डु ने तेरापुर गुफाओं में गुहा-मन्दिर (लयण) बनवाये और उनमें पार्श्वनाथ तीर्थकर की पाषाण प्रतिमा विराजमान कराई। ये लयण और प्रतिमा श्रवतक विद्यमान हैं । 'करकण्डु चरिउ' आदि ग्रन्थों के अनुसार तो ये लयण और पार्श्वनाथ प्रतिमा करकण्डु नरेश से भी पूर्ववर्ती थे । श्रावश्यक चूणि, निशीथ चूणि, वसुदेव हिण्डी, त्रिषष्ठिशलाका पुरुष चरित आदि ग्रन्थों में एक विशेष 'घटना का उल्लेख मिलता है जो इस प्रकार है- "सिन्धु सौवीर के राजा उद्दायन के पास जीवन्त स्वामी की चन्दन की एक प्रतिमा थी । यह प्रतिमा भगवान महावीर के जीवन काल में ही बनी थी। इसलिए उसे जीवन्त स्वामी की मूर्ति कहते थे। उज्जयिनी के राजा प्रद्योत ने अपनी एक प्रेमिका दासी के द्वारा यह मूर्ति चोरी से प्राप्त करली और उसके स्थान पर तदनुरूप काष्ठमूर्ति स्थापित करा दी थी। किन्तु यह मूर्ति किसी देवालय में विराजमान थी, ऐसा कोई उल्लेख प्राप्त नहीं होता | प्राश्चर्य है कि पुरातत्त्व वेत्तायों ने अभी तक इन मन्दिरों और मूर्तियों को स्वीकृति प्रदान नहीं की । पुरातत्त्ववेत्ताओं की धारणा है कि प्रारम्भ में मूर्तियाँ मिट्टी की बनाई जाती थीं। बहुत समय तक इन मृग्भूतियों का प्रचलन रहा । उत्खनन द्वारा जो पुरातत्त्व सामग्री उपलब्ध हुई है उसमें इन मृण्मूर्तियों का बहुत बड़ा भाग है। हड़प्पा, कौशाम्बी, मथुरा श्रादि में बहुसंख्या में मृण्मूर्तियाँ मिली हैं । किन्तु मृण्मूर्तियाँ अधिक चिरस्थायी नहीं रहती थीं। अतः मृण्मूर्तियों को पकाया जाने लगा । प्रायः पकी हुई मृण्मूर्तियाँ ही विभिन्न स्थानों पर मिली हैं। किन्तु पकी मृण्मूर्तियाँ भी स्थायित्व की दृष्टि से असफल रहीं तब पाषाण की मूर्तियाँ निर्मित होने लगीं । मूर्ति निर्माण का इतिहास प्रारम्भ में पाषाण मूर्तियाँ किसी देवता या तीर्थकर की नहीं बनाई गई। बल्कि यक्षों की पाषाण मूर्तियाँ प्रारम्भ में बनाई गई । इस काल में पाषाण में तक्षण कला का विकास नहीं हुआ था । अतः यक्षों की जो प्रारम्भिक पाषाण मूर्तियां मिलती हैं, उनमें सौन्दर्य-बोध का प्रायः अभाव है। एक प्रकार से ये मूर्तियां वेडौल हैं, मानों किन्हीं नौसिखिये हाथों ने इन्हें गढ़ा हो । मथुरा में कंकाली टीला, परखम आदि स्थानों से इसी प्रकार की विशालकाय
SR No.090192
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size15 MB
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