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________________ १९ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास इस सांस्कृतिक युद्ध का दूसरा चरण उस समय प्रारम्भ हुना, जब जातीय युद्ध से लोग ऊब गये। उस समय तक आर्य लोग विशाल भूखण्ड पर अधिकार कर चुके थे और वे यहां के मूल निवासियों के साथ काफी घुलमिल गये थे और उनकी संस्कृति की अनेक विशेषतामों से वे प्रभावित हो चुके थे। उन्होंने अनुभव किया कि नीरस यज्ञयागों और शुष्क क्रियाकाण्डों के सहारे संस्कृति की गाड़ी को गति नहीं मिल सकती। ये जनमानस को अधिक प्रभावित भी नहीं करते। दूसरी ओर क्षत्रिय वर्ग गम्भीर प्राध्यात्मिक तत्व चिन्तन में निरत था। उससे अध्यात्म रशिकों की जिज्ञासा को समाधान मिलता था। क्षत्रिय वर्ग की इस अध्यात्मविद्या से प्रभावित होकर ही वैदिक ऋषियों ने उस काल में उपनिषदों की रचना की। उपनिषदों में अनेक स्थलों पर इस प्रकार के कथानक और परिसंवाद उपलब्ध होते हैं, जिनसे ज्ञात होता है कि अनेक ऋषि क्षत्रियों के निकट प्रध्यात्मविद्या सीखने जाते थे। वस्ततः उस काल तक प्रात्म विद्या के स्वामी क्षत्रिय ही थे, ब्राह्मण ऋषियों को प्रात्म विषयक ज्ञान नहीं था। छान्दोग्य उपनिषद् (५-३) में एक संवाद पाया है, जिसका आशय इस प्रकार है एक बार मारुणि का पत्र श्वेतकेत पाञ्चाल देश के लोगों की सभा में पाया। उससे जीवल के पुत्र प्रवाहण ने पूछा-कमार! क्या पिता ने तुझे शिक्षा दी है ?' उसने कहा-'हा भगवन् !' तब प्रवाहण ने उससे आत्मा और उसके पुनर्जन्म के सम्बन्ध में कुछ प्रश्न पूछे किन्तु वह एक का भी उत्तर नहीं दे सका । तब निराश होकर श्वेतकेतु अपने पिता के पास गया और सारी घटना बताकर कहा कि आपने मुझसे यह कैसे कह दिया कि मैंने तुझे शिक्षा दी है। मैं उस क्षत्रिय के एक भी प्रश्न का उत्सर नहीं सका। तहगौतम गोत्रीय ऋषि बोला-मैं भी इन प्रश्नों का उत्तर नहीं जानता। इसके पश्चात वह ऋषि प्रवाहण के पास गया और उससे प्रात्म-विद्या सिखाने का अनुरोध किया। राजा ने ऋषि से कहा... 'पूर्व काल में तुमसे पहले यह विद्या ब्राह्मणों के पास नहीं गई। इसी से सम्पूर्ण लोकों में इस विद्या के द्वारा क्षत्रियों का ही अनुशासन होता रहा है।' अन्त में राजा ने उसे वह विद्या सिखाई। बह विद्या यी पुनर्जन्म का सिद्धान्त । इससे प्रमाणित होता है कि पुनर्जन्म का सिद्धान्त ब्राह्मणों ने क्षत्रियों से लिया है। छान्दोग्य उपनिपद (५.११) तथा शतपथ ब्राह्मण (१०-६-१) में एक कथा आई है कि उपमन्यू का पुत्र प्राचीन शाल, पूलुप का पुत्र सत्ययज्ञ, भाल्लदि' का पोत्र इन्द्रधुम्न, शकराक्ष का पुत्र जन और अश्वतराश्व का पूत्र वडिल ये महागहस्थ और परम श्रोत्रिय एकत्र होकर प्रात्मा के सम्बन्ध में जिज्ञासा लेकर प्राण के पुत्र उबालक के पास गये, किन्तु वह प्रात्मा के सम्बन्ध में स्वयं ही नहीं जानता था । अतः वह इन्हें लेकर केकयकुमार अश्वपति के पास गया। उसने राजा से पात्मा के संबन्ध में जिज्ञासा की। तब राजा ने उन्हें प्रात्म-विद्या का उपदेश दिया। इसी प्रकार याज्ञवल्क्य को राजा जनक ने, इन्द्र को प्रजापति ने, नारद को सनस्कूमार ने, नचिकेता को यमराज ने प्रात्म-विद्या सिखाई, इस प्रकार के उपाख्यान वैदिक साहित्य में मिलते हैं, जिससे ज्ञात होता है कि वैदिक ऋषि सह अनूभव करते थे कि वैदिक क्रियाकण्ड प्रात्मज्ञान के सामने तुच्छ है। वैदिक क्रिया काण्ड से स्वर्ग भले ही मिल जाय, किन्तु अमृतत्व' और अभयत्व केवल प्रात्म ज्ञान से ही मिल सकता है। इस सम्बन्ध में डॉ. दास गुप्ता का अभिमत है कि "पामतौर से क्षत्रियों में दार्शनिक अन्वेषण की उत्सूकता विद्यमान थी और उपनिषदों के सिद्धान्तों के निर्माण में अवश्य ही उनका मुख्य प्रभाव रहा है।" वेदों में क्षत्रियों को प्रात्म-विद्या के दर्शन नहीं होते। सर्वप्रथम उपनिषदों ने क्षत्रियों से प्रात्म-विद्या १. ययेयं न प्राक रवत्तः पुरा विद्या ब्राह्मणान् सदाति तस्मा सर्वेषु लोकेषु अत्रस्य॑व प्रशासनमभूदिति तस्मै होवाच ॥ द्वान्दोग्य उपनिषद् ५-३ २. हिस्ट्री आफ इण्डियन लिटरेचर, डॉ. विष्टरनीट्स, जिल्द १.१०२३१ ३. विण्टरनीट्सकृत हि आ० इ० लि., जि० १.१० २२७-८ ४. छान्दोग्य उपनिषद् अ०८ ६. कठोपनिषद् ७. History of Indian Philosophy, by Dr. Das Gupta, Vol, I p. 13
SR No.090192
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size15 MB
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