SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 295
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास भद्र के लिये दो नील वस्त्र, माला, मुकुट, गदा, हल, मूसल, वाणों से भरे दो तरकश रथ एवं छत्र दिये । समुद्र विजय श्रादि राजाश्रों का भी कुबेर ने वस्त्राभरणों से सत्कार किया। बाल तीर्थंकर नेमिनाथ का विशेष रीति से कुबेर ने पूजन, सत्कार किया। सबका सत्कार करने पर कुबेर ने प्रार्थना की- आप लोग नगर में प्रवेश कीजिये । इसके पश्चात् पूर्णभद्र को नगर की सुरक्षा के लिये नियुक्त करके वह स्वर्ग को लौट गया । यादवों के संघ ने समुद्र के तट पर श्रीकृष्ण और बलभद्र का अभिषेक कर के उनकी जयजयकार की । तब सब यादवों ने प्रसन्न मन से द्वारिका नगरी में प्रवेश किया। पूर्णभद्र यक्ष ने सबको यथायोग्य स्थान पर ठहराया। तब कुबेर ने समस्त द्वारिका नगरी में साढ़े तीन दिन तक अटूट धन-धायादि की वर्षा की । धीरे-धीरे महाराज श्रीकृष्ण का प्रभाव चारों ओर फैलने लगा। इससे पश्चिम के सभी नरेश उनकी आज्ञा २८० मानने लगे । I मिमणी के साथ कृष्ण का विवाह - द्वारिका में यादवों की सभा हो रही थी। तभी आकाश मार्ग से नारद जी पधारे। उनकी जटाएँ, दाढ़ी और मूंछें पीत वर्ण की थीं। उनका वर्ण श्वेत था। वे रंग-बिरंगे योगपट्ट से विभू षित थे। वे कौपीन और चादर धारण किये हुए थे। वे तीन लर वाला यज्ञोपवीत धारण किये हुए थे । वे नैष्ठिक ब्रह्मचारी थे। राजप्रासादों के अन्तःपुरों में उनका श्रव्याहत प्रवेश था। किन्तु वे कलह-प्रिय स्वाभिमानी और क्रोधी थे। शिशु वय में उनका पालन जृम्भक नामक देव ने वैताढ्य पर्वत पर किया था। देव उनसे अत्यन्त स्नेह करते थे । माठ वर्ष की अवस्था में देवों ने उन्हें जिनागम की विद्या और प्राकाशगामिनी विद्या प्रदान की थी। वही शिशु नारद नाम से विख्यात हुआ । नारद श्रावक के प्रणुव्रतों के भी पालक थे । नारद ने पाकर तीर्थंकर नेमि प्रभु, कृष्ण और बलराम को नमस्कार किया। शेष व्यक्तियों ने उन्हें नमस्कार किया । ग्रासन ग्रहण करने पर उन्होंने इधर-उधर की चर्चा की। फिर वे अन्तःपुर में पहुँचे । उस समय कृष्ण ठेस की महादेवी अपने श्रृंगार में लोन थी । वह नारद को नहीं देख पाईं। नारद के स्वाभिमान को इससे बहुत पहुँची। उन्होंने मन में निश्चय किया कि मैं इसकी एक सपत्नी लाकर इसके सौन्दर्य के अहंकार को अवश्य चूर-चूर करूँगा । यह निश्चय करके वे वापिस लौट आये और प्राकाश मार्ग से वे कुण्डिनपुर जा पहुँचे । वे वहाँ के नरेश भीष्म के भन्तःपुर में पहुंचे। रानियों तथा भीष्म की बहन ने श्राकर उन्हें नमस्कार किया। वहाँ रति के समान एक रूपवती कन्या को देखकर वे विचार करने लगे-यह कन्या कृष्ण की पट्टमहिषी पद पर अधिष्ठित होने योग्य है । इस कन्या के द्वारा ही में गर्विणी सत्यभामा का दर्प चूर्ण करूंगा । रूप की खान उस कन्या का नाम रुक्मिणी था । उसने विनय और संभ्रम के साथ नारद को नमस्कार किया। नारद ने उसे प्राशीर्वाद दिया- द्वारिका के स्वामी कृष्ण तुम्हारे पति हों ।' रुक्मिणी के पूछने पर नारद ने द्वारिका के वैभव और कृष्ण के प्रभाव, पौष का ऐसा सरस वर्णन किया कि रुक्मिणी के मन में कृष्ण के प्रति तीव्र मनुराग उत्पन्न हो गया । नारद रुक्मिणी के मन में प्रेम की ज्वाला सुलगा कर वहाँ से चल दिये। उन्होंने एकान्त में बैठकर चित्र पट पर मणी का मनमोहन चित्र अंकित किया। वे पुनः द्वारिका पहुँचे और कृष्ण को वह चित्रपट दिखाया। कृष्ण उस चित्र को विमुग्ध भाव से निहारते रहे। उन्होंने मनोभावों को वाणी का रूप देकर पूछा- 'देवष ! कौन है यह कन्या ? क्या यह कोई सुरबाला है अथवा कोई नाग कन्या है ?' नारद ने किंचित मुस्कराकर उनका परिचय दिया । परिचय ऐसा सरस था कि कृष्ण के मन में उसे पाने की तीव्र ललक आगुल हो गई । उer fort को एकान्त में ले जाकर उसकी बूद्मा बोली- पुत्री ! मेरी बात सुन एक बार प्रतिमुक्तक नामक refuशानी मुनि यहाँ पधारे थे। उन्होंने तुझे देखकर कहा था- 'यह सुलक्षणा कन्या त्रिखण्डाधिपति नारायण की सोलह हजार रानियों में पट्टमहिषी पद से विभूषित होगी । माज देवर्षि नारद ने भी वही आशीर्वाद तुझे दिया है । लगता है, भविष्य दृष्टा मुनि के वचन यथार्थं सिद्ध होंगे। किन्तु समस्या यह है कि तेरे प्रतापी सहोदर रुक्मी ने तुझे शिशुपाल की देने का संकल्प किया है। मोर शिशुपाल बाजकल में यहां श्राने ही वाला है ।' दक्मिणी बोली--मुनिराज के वचन अन्यथा कैसे हो सकते हैं। इस जीवन में कृष्ण ही मेरे पति होंगे, मेरा
SR No.090192
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy