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________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास रुचकोज्वला तथा दिक्कुमारियों में प्रधान विजया आदि चार देवियों ने विधिपूर्वक भगवान का जात कर्म सम्पन्न किया । २०८ भगवान के जन्मोत्सव के पूर्व ही कुबेर ने शौयंपुर को दुलहिन की तरह सजा रक्खा था। उसके महलों पर ऊँची-ऊँची ध्वजायें फहरा रही थीं, राज्य पथ और वीथियाँ बिलकुल स्वच्छ थीं । सारे नगर में तोरणों और वन्दनमालाओं की शोभा अद्भुत थी। चारों निकाय के इन्द्रों और देवों ने नगर की तीन प्रदक्षिणायें दीं। फिर इन्द्र ने कुछ देवों के साथ नगर में प्रवेश किया और इन्द्राणी को सद्योजात बाल भगवान को लाने का आदेश दिया। तब इन्द्राणी ने प्रसूतिका - गृह में प्रवेश करके प्रादर पूर्वक जिन माता को प्रणाम किया और उनकी बगल में मायामय बालक सुलाकर और उन्हें मायामयी निद्रा में सुलाकर जिन बालक को लाकर इन्द्र को सौंप दिया । इन्द्र भगवान को ऐरावत हाथी पर विराजमान करके समस्त देवों के साथ सुमेरु पर्वत पर ले चला । उस समय की शोभा अवर्णनीय थी । ऐरावत हाथी के बत्तीस मुख थे । प्रत्येक मुख में प्राठ प्राठ दांत थे। प्रत्येक दांत पर एक-एक सरोवर था । प्रत्येक सरोवर में एक-एक कमलिनो थी । एक- एक कमलिनी में बत्तीस-बत्तीस पत्र थे । एक-एक पत्र पर अक्षय यौवना अप्सरा नृत्य कर रही थी। इस प्रकार की देवी विभूति के साथ देव लोग सुमेरु पर्वत के निकट पहुँचे और उसकी प्रदक्षिणा देकर पाण्डुक नामक वनं खण्ड में पहुँचे । वहाँ पाण्डुक शिला पर स्थित सिंहासन पर भगवान को विराजमान किया । उस समय देवाङ्गनायें और नृत्यकार देव भक्ति नृत्य कर रहे थे, नगाड़े, शंख और भेरियों का तुमुलनाद हो रहा था । सुगन्धित धूप घटों में जल रही थी । सुगन्धित वायु वातावरण को सुवासित कर रही थी । सुमेरु पर्वत और क्षीरसागर के मध्य देदीप्यमान कलश हाथ में लिये हुए देवों की पंक्तियाँ खड़ी थीं और वे कलश एक हाथ से दूसरे हाथ में जा रहे थे । इन्द्रों ने और फिर देवों ने भगवान का अभिषेक किया । इन्द्राणी और देवियों ने भगवान का शृंगार किया । तब देव लोग भगवान को लेकर शौर्यपुर वापिस लौटे और प्रासाद में पहुँच कर इन्द्राणी ने बालक को जिन माता की गोद में दिया तब इन्द्र ने ग्रानन्दनाटक और भक्तिपूरित हृदय से ताण्डव नृत्य किया । फिर इन्द्र ने माता-पिता को प्रणाम किया, जिन बालक के दाहिने हाथ के अंगूठे में अमृत निक्षिप्त किया और कुबेर को ऋतु श्रवस्था आदि के अनुसार भगवान को सब प्रकार की व्यवस्था करने का आदेश देकर समस्त देवों के साथ fe प्रस्थान किया | इस प्रकार भगवान नेमिनाथ का जन्म महोत्सव समस्त इन्द्रों और देवों ने मिलकर मनाया । यादवों द्वारा शौर्यपुर का परित्याग - प्रपने पुत्रों और प्राणोपम भ्राता की मृत्यु से जरासन्ध जितना शोकाकुल हुआ, उससे कहीं अधिक उनका घात करने वाले यादवों पर क्रोध प्राया । उसने यादवों का समूल विनाश करने का निश्चय कर लिया। उसने अविलम्ब चरों द्वारा मित्र नरेशों और प्रधीन राजाओं को सन्देश भेज दिये । फलतः नाना देशों के नरेश अपनी-अपनी चतुरंगिणी सेना लेकर श्रा पहुँचे । यादवों को अपने चतुर चरों द्वारा जरासन्ध की विशाल युद्ध तैयारियों का पता चल गया । श्रतः युद्धस्थिति पर विचार करने और अपनी भावी नीति निर्धारित करने के लिये शौर्यपुर में शौर्यपुर, मथुरा सौर वीर्यपुर के वृष्णिवंशी और भोजवंशी यादवों के प्रमुख लोगों की मंत्राणागार में सभा जुड़ी। मंत्रणा का निष्कर्ष इस प्रकार रहा जरासन्ध की प्राज्ञा भरतक्षेत्र के तीन खण्डों में कभी मतिक्रान्त नहीं हुई । चक्र, खड्ग, गदा और दण्ड रत्न के कारण वह प्रजेय समझा जाता है। हम लोगों पर वह सदा उपकार करता रहा है किन्तु सब वह अपने छाता और पुत्रों के वध के कारण यादवों पर अत्यन्त शुद्ध हो रहा है। वह इतना अहंकारी है कि हम लोगों के देव और पुरुषार्थ सम्बन्धी सामयं को जानता हुम्रा भी उसे मनदेखा कर रहा है। कृष्ण मोर बलराम का पौष और प्रताप बालकपन से ही प्रगट हो रहा है। इन्द्र और देव भी जिनके चरणों में नीभूत होते हैं और लोकपाल जिनके लालन-पालन करने के लिये व्यग्र रहते हैं, वे नेमिनाथ तीर्थकर यद्यपि प्रभी बालक ही हैं, किन्तु तीर्थंकर के कुल का प्रपकार करने का सामर्थ्य तीन लोक में किसी में नहीं है। फिर भी हमें उसकी असंख्य सेना और अपार बल का सामना करने के लिए शक्ति-संग्रह करना मावश्यक है. और उसके लिये हमें कुछ समय के लिये शान्तिपूर्ण भवसर प्राप्त होना चाहिये। इसलिये हमें अभी इस स्थान का परित्याग करके पश्चिम दिशा की ओर किसी सुरक्षित स्थान पर चलना चाहिये । यदि जरासन्ध हमारा
SR No.090192
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size15 MB
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